जिंदगी
कभी धूप की तरह,
खिल उठती है,वो….
फूलों की मुस्कराती है,
बारिश बनकर,
तपती धरा को,
संतृप्त कर देती है,
घोल देती है फिजाओं
में महक,
कर देती है सुगन्धित,
तन, मन,
बेहिसाब लुटाती है,
प्यार अपना,
कभी बन जाती है,
पतझड़ का मौसम,
छीन लेती है,
रंगत सारी शाखों से,
मुरझा जाती है,
फूलो की तरह,
धूप से चोट खाकर,
तब शेष रहता है,
ठूंठ बनके जीवन,
मुरझाए सपनो की,
साकारता लिये,
दिखा देती है रास्ता,
संघर्ष के पथ का,
मन में एकबार फिर,
जगा देती है आस,
जला देती है,
उम्मीद का दीपक,
फूट पड़ती है तब,
नई कोपले,
उम्मीद के सहारे,
थोड़ा खट्टा,
थोड़ा मीठा सा,
अहसास है…
ये
“जिंदगी”
हां ! मेरी जिंदगी
— नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
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