विधा : दोहे
(1)
प्रेम रहा नहि प्रेम अब,प्रेम बना व्यापार |
प्रेम अगर वह प्रेम हो,प्रेम करे भवपार ||
(2)
प्रेम संग पेशा मिला,हुआ बाद फिर प्यार |
प्यार प्यार कर ठग रहे,अब सारे नर नार ||
(3)
प्रेम दिलो का मेल है,समझो नहि व्यापार |
प्रेम करो दिल से सभी,रहे न बाद विकार ||
(4)
लाभ हानि को देखकर,करें यहां जो प्यार |
प्रेम नही सब जान लो,करते वह व्यापार ||
(५)
माथे पर टीका रखो,अधर रखो मुस्कान ।
तुम हिंदुत्व न त्यागिये,ये हिन्दू की शान ।।
(६)
माना गीदड़ हैं मिले,इन शेरो के साथ ।
पर गीदड़ में है कहाँ,शेरो जैसी बात ।।
(७)
सच को जो कवि नहि लिखें,किया न पालन धर्म ।
सच में वो समझें नही,कवि,कविता का मर्म ।।
(८)
लोभ मोह को त्यागिये,त्यागो अवगुण द्वेष ।
सत्कर्मो की राह लो,बदलो फिर परिवेश ।।
(९)
उसका निखरा रूप था,नागिन जैसे बाल ।
घायल करती जा रही,चल मतवाली चाल ।।
(१०)
चन्द्र बदन कटि कामनी,अधर बिम्ब सम लाल ।
नयन कटारी संग ले,करने लगी हलाल ।।
(११)
जबसे देखा है तुझे,पाया कहीं न चैन ।
प्रेम रोग ऐसा लगा,नित बरसत है नैन ।।
(१२)
प्रीतम से होगा मिलन,आस भरे दो नैन ।
स्वपन सलोने बुन रही,देखो फिर से रैन ।।
(१३)
विरह पीर तुम जान लो,ओ रांझे की हीर ।
तडप रहा मैं नित यहां,बहे नयन से नीर ।।
(१४)
सात जन्म तक चाहता,क्या तुम दोगी साथ ।
उसने ये सुन रख दिया,फिर हाथो में हाथ ।।
(१५)
सजनी से होगा मिलन,कहे यही दो नैन ।
खुशियों को ओढ़े हुये,अब आएगी रैन ।।
(१६)
गुस्सा लालच वासना,तीन नरक के द्वार |
जो चाहो तुम स्वर्ग को,त्यागो मलिन विचार ||
(१७)
जो जन्मा इस सृष्टि पर,मरना निश्चित जान |
सत्य एक ऐसा कहे,गीता में भगवान ||
(१८)
जिसका जन्म हुआ यहाँ,मरना उसको यार |
बात सत्य यह जान लो,सच का दुख बेकार ||
(१९)
शूर वीरता तेज अरु,धैर्य चतुर निज मान ।
स्वभाविक गुण धर्म ये,सब क्षत्रिय के जान ।।
(२०)
सूरज के आलोक सम,जग से हर अँधियार ।
सदा चाँद सम तुम रखो,शीतल मृदु व्यवहार ।।
(२१)
सागर सम हिरदै रखो,करो धरा सम प्यार ।
अम्बर के नीचे बसा,अपना ही परिवार ।।
(२२)
शारद के भंडार से,कर लो थोड़ा दान ।
निश दिन दूनो ये बढ़े,मिटे साथ अज्ञान ।।
(२३)
(२४)
मूरख को भी दीजिये,विद्या का तुम दान ।
मूरख नहि मूरख रहे,हो उसका कल्याण ।।
(२५)
गद्य – पद्य छोडो नही,करो नही मतभेद ।
हिंदी के दो रत्न ये,मानो ज्यो गोमेद ।।
इक दूजे को कब तलक,दोगे तुम अब दोष ।
पश्चिमता की ब्यार मे,भूल चले क्यों होश ।।
कवियों का संसार ये, भारत भूमि महान ।
भूल चले परिवेश को,यह कैसा है ज्ञान ।।
अपनी अपनी सोच है,अपने सुघड़ विचार ।
अपनों से मिलकर बने,अपना ये संसार ।।
वेद शास्त्र अरु ग्रन्थ का,रावण को था ज्ञान ।
पतन अहम वश ही हुआ,इतना लो सब जान ।।
रावण सम ज्ञानी नही,न कोउ भ्राता आज ।
केवल बहिना के लिये,गवाँ दिया सब राज ।।
रावण पुतला फूँक कर,हर्षित सब ही लोग ।
पर रावण भीतर लिये,करते नित ही भोग ।।
कागज पुतला फूँक कर,खुश होते सब लोग ।
असली रावण मन बसा,अहम -वहम बन रोग ।।
✍? नवीन श्रोत्रिय”उत्कर्ष”
श्रोत्रिय निवास बयाना