गज़ल
हाल-ए-दिल सबको सुनाने की ज़रूरत क्या है
अश्क सरेआम बहाने की ज़रूरत क्या है
ताल्लुक बोझ लगता हो तो आओ तोड़ देते हैं
इस तरह नज़रें चुराने की ज़रूरत क्या है
हम तो मर जाएँगे थोड़ी सी बेरूखी से ही
तुमको तलवार उठाने की ज़रूरत क्या है
खाक हो जाऊँगा तेरे दीदा-ए-आतिश से ही
मिल के गैरों से जलाने की ज़रूरत क्या है
ज़िंदगी नाम है मिल-जुल के जिए जाने का
अकेले बोझ उठाने की ज़रूरत क्या है
जो तुम नहीं हो तो करूँगा क्या ज़माने का
और तुम हो तो ज़माने की ज़रूरत क्या है
नई दुनिया नए साथी तुम्हें मुबारक हों
अब किसी दोस्त पुराने की ज़रूरत क्या है
— भरत मल्होत्रा