हाय हाय ये मजबूरी(हास्य आलेख)
हाय हाय ये मजबूरी #(हास्य आलेख)
विनोद कुमार विक्की
आज के फैशनपरस्त दौर मे हर नेक बंदा किसी न किसी आदत से मजबूर होता है।संतरी से लेकर मंत्री, पति से लेकर प्रधानमंत्री हर कोई मजबूरी का मारा दिखाई पड़ता है।नेता जी अपने पिछवाडे की कुर्सी को बचाने के लिए मजबूर है तो सरकारी आफिस के बाबू का रिश्वत लेना भी एक मजबूरी है। भैयाजी ले भी क्यों न आखिर बीवी बच्चों को खुश जो रखना है।
अब वेतन के भरोसे रहेगे तो महीने के तीसो दिन 24×7 नानस्टाप ‘नाश्ते’ मे बीवी-बच्चों की धुड़कियां और खाने की जगह बीवी के ताने जो मिलेंगे।
सोसायटी मे मोहतरमा को मिसेज शर्मा, मिसेज वर्मा, शीला, सुशीला,प्रमिला के बीच सैंडल से साड़ी तक खुद को मेन्टेन भी तो रखना है। बीवी को खुश रखने हेतु उपरी कमाई करना साहेब की मजबूरी है तो सोसायटी मे खुद को मर्केला एंजेल बनाना मैडम की मजबूरी है।
अर्द्धांगिनी की इच्छा पुरी ना हो तो फिर पति परमेश्वर बेचारे की खैर नही चाहे खुब हनुमान चालीसा क्यों ना पढ ले धुलाई तो तय है ,हां धोबन पावडर टाइड होगी या सर्फ एक्सेल ये तो मोहतरमा के मूड पर निर्भर करता है।
बीवी के आदेश का पालन करना, उसके मायके वालों का सम्मान करना,ना चाहते हुए भी पत्नी रूपी “विस्फोटक सामग्री”के निर्माता श्री श्री 108 सास-ससूर की इज्जत करना हर शोषित पीड़ित पति की देवमजबूरी है। वायदा व आश्वासन की पूंजी पर पांच वर्षों तक अपनी दुकान चलाने वाले नेताओं की मजबूरी भी काफी सोचनीय है।पंचायत चुनाव से लेकर संसदीय चुनाव तक दोनों हाथों को जोड़ याचना मुद्रा मे वोट के लिए दरवाजे-दरवाजे गिड़गिड़ाने की परम्परागत शैली गांधीजी युग से 4जी युग तक एक समान है।चुनाव के पहले जनता के आगे हाथ जोड़ना नेताजी की मजबूरी है तो चुनाव के बाद नेताजी के आगे हाथ जोड़ना जनता की मजबूरी है।
अब रेलवे के राज्य सिपाही की चर्चा करें तो हमारे सामने विशाल तोंद के स्वामी ऐनक धारी ऐसे खाक पुरुष (खाकी पुरुष) की छवि उभरती है जिनकी मजबूरी ही “नजराना वसूलना” है।यदि लोकल ट्रेनों में साक सब्जी की गठरी मोटरी को ये तथाकथित भारी भरकम गोलगुम्बद सरीखे पेट को शरीर पर धारण किए हुए ऐसे खाकी पुरुष गर सरकारी लाठी से सर्च करते आपको नजर आ जाए तो आप कतई दिग्भ्रमित ना हो संभव है ये किसी बम या संदिग्ध वस्तु को तलाश नही कर रहें हो बल्कि गठरी मोटरी का आकलन कर अपनी अतिरिक्त वसूली का चार्ज तय कर हो ताकि उस गठरी के मालिक या भेंडर से वो राशि वसूल सकें।
काफी मशक्कत वाली नौकरी करते है ये सिपाही जी, काम का बोझ सर पे इतना है कि खाने की सुध ही नही रहती इन्हें।अब पृथ्वी पर इन्हें जीवित भी रहना है तो उसके लिए ईंधन भी आवश्यक है।ये अपने खुराक का जुगाड़ ट्रेनों मे खाने पीने का सामान बेचने वाले गैर लाइसेंसी भेंडरो से कर लेते है।समय समय पर चाय चुक्का भी इन्हीं के सौजन्य से प्राप्त हो जाता है।अब एक्सट्रा भोजन करेंगे तभी तो रेल व यात्रियों की सुरक्षा कर पाएँगे।
ये अलग बात है कि निःशुल्क भोजन का जुगाड़ व उपरी कमाई का प्रेशर इनकी पेशागत मजबूरी बन गई है।
कुछ इसी तरह की मजबूरी थाना मे कार्यरत सिपाहियों की होती है।यदि कोई अपरिचित विशेष जरूरतमंद अपने बाहुबल से या सामर्थ्यनुसार लाठी चाकू, छूरी, पिस्तौल आदि दिखलाकर आपकी संपत्ति का स्वामी बन गया हो और आप थानेदार साहेब के पास जाए अपनी प्रसंग सुनाने अर्थात रिपोर्ट लिखाने तो दिजिए “चायपानी” का खर्च।
भई ये तो इनकी मजबूरी है आपके द्वारा दिए गए चायपानी का खर्च इनके लिए ग्लुकोन-डी का काम करता है और इन्हें आपकी शिकायत (एफआईआर) लिखने की ताकत मिल जाती है। वो और बात है कि इनके द्वारा लिया जाने वाला एक्शन आपके द्वारा दिये गए चायपानी का खर्च तय करेगा।
प्रेमिका के नखरे उठाना प्रेमियों की मजबूरी है तो बेरोजगार प्रेमी का खर्च वहन करना उसके पिता की मजबूरी है।
भले आर्थिक शोषण से इनकी कीडनी फेल हो जाए इन्हें तनिक गम नहीं किंतु प्रेमिका हल्की खांस या छींक भी दे तो प्रेमी उसे स्वाइन फ्लू या सार्स थिरैपी दिलवाने के लिए तैयार हो जाए।
बिन पेंदे के लोटे की तरह दल बदलना,झूठ बोलना, घोटाले करना जहां भ्रष्ट नेताओं की मजबूरी है वहीं ऐसेनेताओं को झेलना राष्ट्र की मजबूरी है।
डाक्टर को झेलना पेशेंट की मजबूरी है तो पेशेंट को झेलना परिजनों की।सास की हिटलर शाही शासन बहू की मजबूरी है तो रजनीकांत बहू का जलवा देखना सास की मजबूरी है वहीं दुसरी ओर मां व पत्नी रूपी दो पाटों के बीच गेहूँ के रूप मे पीसना पति की मजबूरी है।
सरकार के काम मे अडँगा डालना विपक्ष की मजबूरी है।आज के हाइटेक युग मे महात्मा गांधी से जुड़े शब्द ‘मजबूरी’ का ग्लोबलाइजेशन हो चुका है।
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ना रहकर अवसरवादी हो चुका है।सभी लोग’मजबूरी’नामक संक्रामक बिमारी के बिना खुद को ऐसा अधूरा फील करते है जैसे सांभर के बिना इडली, नमक के बिना टुथपेस्ट।अब हम जैसे कलम के दुश्मनों की बात की जाय तो मियाँ हमने भी मजबूरी पर PhD कर रखी है। व्यंग्य के रूप मे देश के इन महापुरुषों के “मजबूर सदकृत्य” को लिखकर जनता तक पहुँचाना हमारी मजबूरी है।
हमारी ‘मजबूरी’की गति के आगे तो बुलेट ट्रेन की स्पीड भी पीछे छुट जाए।अमां यार द्रुत गति हो भी क्यों न? आखिर हमारे नाम के पीछे ‘कार’ जो लगी हुई है पत्रकार, साहित्यकार व्यंग्यकार…..।