फुर्सत किसको है
हर बार किसी तस्वीर को माध्यम बनाकर नहीं लिखा जा सकता कुछ कुछ ऐसे ही प्रतिबिंब और तस्वीरें रहती हैं जो जहन में जगह कर जाती हैं ।
दिल्ली जैसे बड़े शहर में रहने का यही कारण है कि जिस प्रकार की व्यवस्था, जीवन ,जिंदगी मैं दिल्ली में देखता हूं।
बस वही भाव मेरी कलम लिख देती है और उन्हीं भावों को आपके बीच शब्दों में पिरोकर रखना चाहता हूं और आज की इस कविता का शीर्षक है
फुर्सत किसको है
वो ताकती है खिड़कियों से
कराहती हुई मगर थोड़ी मुस्काती
लेकिन फुर्सत किसको है
वो बैठी है भूखी कई रोज से
फैलाएं हाथ दोनों गिड़गिड़ाती
मगर फुर्सत किसको है
बचपन छूट गया है नन्हे हाथों से
वो तोड़ते हैं पत्थर दिनभर
मरहम बनाते हैं पानी को
लेकिन फुर्सत किसको है
ढूंढते सुकून जिनकी जिंदगी जाती है गुजर
टपकती छत में रोती है वह उम्र भर
लेकिन फुर्सत किसको है
रौंदी जाती है जो सड़कों पर
तार तार की जाती है जिस की आत्मा
मगर फुर्सत किसको है
जब हम सो जाते हैं कुछ नया करने के लिए
वो जागती है ,बेचती है जिस्म अपना पेट भरने के लिए
लेकिन फुर्सत किसको है
सरकारी कागजों में उनके नाम कभी चढ़ नहीं पाते
खिलता जरूर है नव अंकुर मगर आगे बढ़ नहीं पाते
मगर फुर्सत किसको है