लेख : संतोष
मनुष्य का मन कभी संतुष्ट नहीं होता। जितना प्राप्त करता है उतनी ही इसकी प्यास बढ़ती जाती है। ये हमेशा एक ही मंत्र का जाप करता रहता है “और” “और” “और”। एवं हम भी विक्षिप्तों की भाँति इसकी मांग पूर्ण करने के प्रयासों में जुटे रहते हैं। बिना ये सोचे-समझे कि इसकी तृष्णा का तो कोई अंत ही नहीं। आज यदि प्रत्येक व्यक्ति दुखी है, निराश है तो उसका केवल एक ही कारण है कि उसकी दृष्टि उन वस्तुओं या सुविधाओं पर है जो उसे प्राप्त नहीं हैं। जो उसे प्राप्त हैं उनका उसकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं। हमें ये भली-भांति समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति या सुविधा का मूल्य केवल दो ही स्थितियों में होता है, प्रथम उसके प्राप्त होने से पहले एवं द्वितीय उसे खो देने के पश्चात। जब वो वस्तु या व्यक्ति या सुविधा हमें उपलब्ध होते हैं तो हमारी दृष्टि उन पर न होकर किसी अन्य लक्ष्य की ओर होती है जो अभी हमारी पहुंच से बाहर हो। यदि हम ये सोचें कि जो हमें सहज ही उपलब्ध है वो भी बहुतों के लिए अप्राप्य है तो हमें संतोष का अनुभव होगा। ये संतोष ही आनंद का द्वार है। जीवन में परिश्रम अवश्य करो परंतु अपने से समृद्ध व्यक्तियों का अंधानुकरण मत करो। मन हमेशा ये कहता है कि बस थोड़ा और। परंतु ये थोड़ा और हमेशा आगे खिसकता रहता है। ये क्षितिज की भाँति है। हमें लगता है कि कुछ दूरी पर ही धरती एवं आकाश मिल रहे हैं। बस थोड़ा और चलेंगे तो उस रमणीय स्थल पर पहुंच जाएंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं। जितना हम आगे बढ़ते हैं क्षितिज भी उतना ही आगे बढ़ जाता है। यदि आनंदित होना है एवं सदा आनंद में ही रहना है तो जीवन का मूल मंत्र बना लो कि जो प्राप्त है वही पर्याप्त है। विश्वास रखो कि यदि तुम्हें वो पर्याप्त नहीं जो तुम्हारे पास है तो विश्व भर की संपत्ति एवं सुविधाएँ भी तुम्हें पर्याप्त नहीं होंगी। –
— भरत मल्होत्रा