कविता

मन की व्यथा

मन की व्यथा
मन में ही रखती हूं
किसी से बिन बताए
खुद ही सहती हूं
कितना भी लब पर हंसी रखूं
लेकिन पिड़ा अलग ही
उभर जाता है
बिन बताये सबको
मालूम हो जाता है
अपने तो पढ ही लेते हैं
चेहरे के भाव से
व्यथा को समझ जाते हैं
लेकिन अपनों में वो ताकत कहां
जो व्यथा को दूर करें
मैं खुद ही दूर करना चाहती हूं
कभी हंसती तो कभी खिलखिलाती हूं
कभी अंदर ही अंदर
घुट घुट कर जीती हूं
कहने को साहस नहीं
नहीं मैं लड़ सकती हूं
जब पिड़ा देने वाले हो अपने
उनसे कैसे झगड़ सकती हूं
उसे व्यथा सुनाना क्या
जो समझ न सके बात को
इसलिए बस कुछ दिन
उनसे दुर रहना चाहती हूं
कुछ समय तक अपने को
अकेला रखना चाहती हूं|
    निवेदिता चतुर्वेदी’निव्या’

निवेदिता चतुर्वेदी

बी.एसी. शौक ---- लेखन पता --चेनारी ,सासाराम ,रोहतास ,बिहार , ८२११०४