ग़ज़ल
इस जीस्त से निराश हूँ मैं, यार क्या करूँ
कुछ भी तो सूझता है नहीं, प्यार क्या करूँ
हमको निभाना प्यार तो, इकरार क्या करूँ
उत्सर्ग जिंदगी है तो, इज़हार क्या करूँ
ये जीस्त भी अजीब है, इज्ज़त मिली नहीं
खाया हूँ डांट,चोट, तिरस्कार, क्या करूँ
हर बात दोस्त मानता, जोरू जो बोलती
इस भीरु दोस्त से मैं क्या तकरार करूँ
माँगे बिना मिला नहीं कुछ भी यहाँ कभी
ये प्यार जो तुम्हारा है, इनकार क्या करूँ
है नाव जिंदगी का रहा तैरता मगर
कश्ती तो डगमगा रही मझधार, क्या करूँ
यह तोहफा अनूठा है, थोड़ा डरावना
लड़ना तो जानता नहीं, तलवार क्या करूँ
आना है हमको और यहाँ, रहना नहीं कभी
जग-हाट में दुकान का विस्तार क्या करूँ
खोटी नसीब है मेरी, अब क्या कहूँ तुझे
पाना तुझे तमन्ना थी, उपहार क्या करूँ
जब फ़र्ज़ ही नसीब है, अधिकार तो नहीं
यह जिंदगी तुम्हारी है, उपकार क्या करूँ
— कालीपद ’प्रसाद’