बसंत-गीत
वन-उपवन में तू बिखरा है, सचमुच तुझ पर यौवन है !
अमराई, सरसों, पलाश पर, तुझसे ही तो जीवन है !!
बहता है तू संग पवन के,
हर कछार में दिखता है
प्रेमकथा की रचना करके,
अनुबंधों को लिखता है
अंतर्मन को करता प्रमुदित, आनंदित अब हर जन है !
अमराई, सरसों, पलाश पर, तुझसे ही तो जीवन है !!
कोयल की भाषा में है तू,
है सुधियों के दर्पन में
है अनंग की महिमा में तू,
तू प्रणय के बंधन में
राग-रंग, अनुराग तुझी से, मिलन-नेह का आंगन है !
अमराई, सरसों, पलाश पर, तुझसे ही तो जीवन है !!
कामनाओं की दावानल तू,
पीड़ादायी तनहाई
विरह-वेदना का तू स्वामी,
टीस लगाती गहराई
आया है रौनक लेकर तू, तेरा तो अभिनंदन है !
हे बसंत, हे प्रिय बसंत, तेरा तो अभिवंदन है !!
— प्रो. शरद नारायण खरे