बिदेस
बिदेसी के सीधे अर्थ हैं, किसी दूसरे देश में वस जाने वाला लेकिन इस छोटे से शब्द में बहुत कुछ छिपा हुआ है। इस की विआखिया करनी इतनी आसान नहीं है। चलो मैं खुद से ही शुरू करता हूँ क्योंकि मैं भी एक बिदेसी हूँ, इंग्लैंड में रहता हूँ लेकिन इंग्लैंड में मैं क्यों आया ? आम लोग यह ही सोचेंगे कि रोज़ी रोटी के लिये। जी नहीं ! सच पूछो तो मुझे खुद नहीं पता था कि मैं इंग्लैंग को क्यों जा रहा हूँ, बल्कि इंग्लैंड जाने के लिये मैंने कभी सोचा ही नहीं था, हालांकि मेरे पिता जी पहले ही इंग्लैंड में रहते थे। अगर मुझे कोई चाहत होती तो मैं उन को लिख देता कि वे मुझे इंग्लैंड बुला लें और उन दिनों में किसी कालज के विदयार्थी को इंग्लैंड आना बहुत आसान होता था। यह सब तो मेरे एक दोस्त के कारण ही हुआ, जिस के चाचा जी इंग्लैंड में रहते थे और उन्होंने मेरे दोस्त को इंग्लैंड बुलाने के लिए स्पॉन्सरशिप डाकुमेंट भेज दिया था। जैसे ही मेरे दोस्त ने वोह डाकुमेंट मुझे दिखाया तो मेरे मन में कुछ कुछ होने लगा, मैंने भी तैयारी कर ली और अपने दोस्त से भी एक हफ्ता पहले इंग्लैंड पहुँच गया। कैसे इंग्लैंड आया, यह मेरा विषय नहीं है, विषय तो यह हैं कि एक दफा कोई अपना देश छोड़ कर बिदेस गया, उस की ज़िन्दगी में किया बदलाव आते हैं और उस नए देश पर वोह अपने किया प्रभाव छोड़ता है । अपना देश छोड़ने के इलग्ग इलग्ग कारण होते हैं। अक्सर हम भारत के इतिहास में जब आर्य लोगों के बारे में पढ़ा करते थे तो मन ही मन में उन लोगों का चित्रण करते थे। इन लोगों के भारत में आने के इतिहासकार अपने अपने विचार देते थे। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि हो सकता है, उन के देश में पानी की समस्य हो गई होगी या देश में गड़बड़ हो गई हो और लोग तंग आ कर देश छोड़ जाने पर मजबूर हो गए हों। बहुत दफा ऐसा भी होता है कि लोगों में आम विशवास होने लगता है कि दूसरे देश के लोग बहुत बहुत अमीर हैं और वहां दूध और शहद की नदियाँ बहती हैं और लोग उस देश का रुख कर लेते हैं । ऐसे ही धीरे धीरे काफ्ले दूसरे देशों में जाते रहे।
प्रवास को अपना देश बनाने के और भी कारण होते थे, जैसे एक दूसरे देश पर हमला करना। हमारे देश पर बिदेशी हमले इतने हुए कि इन हमलावरों से इतिहास ही भरा पड़ा है। मंगोल, तुर्क, ईरानी और अन्य लोग भारत में आये। अफगानिस्तान जैसा देश, जिस पर कभी कौरव पांडव की शानोशौकत होती थी और गंधार (कंधार ) की इस समय बहुत महत्ता होती थी और अशोक के समय तो सारा अफगानिस्तान महात्मा बुध के बुत्तों से भरा हुआ था जिस का आख़री बुत्त कुछ साल हुए तालिबानों ने बम्बों से उड़ा दिया था। इन अफगानी लोगों को देखा जाए तो इन के गोरे रंगों से ही जाहर हो जाता है कि यह लोग बिदेशी हमलावर थे जो फार ईस्ट या ईस्टर्न यूर्प के लोग होंगे। यह लोग अपने अपने देशों को छोड़ अफगानिस्तान में वस् गए और अब अफगानिस्तान ही इन की जन्मभूमि बन गई। इसी तरह कभी सिकंदर के हमले के कारण, उस के बहुत से सिपाही भारत में ही रह गए और यहीं घर बसा लिए। हमारे देश पर कुषाण और हून्ज़ लोग भी आये, भारत पर राज किया और यहीं वस् गए। यह माइग्रेशन सारी दुनिआं में होती आई है लेकिन मेरा मकसद सिर्फ भारती लोगों से है।
अपना देश छोड़ कर दूसरे देश में जाने से एक बात पर बहुत धियान देने की जरुरत है और वोह है, अपने साथ अपने देश के संस्कार भी साथ ले के जाना। इस्लामी देशों से जो हमलावर भारत में आये, उन्होंने इस्लाम को फैलाया। यह मुसलमान सुन्नी शिया और सूफी थे। भारत एक हिन्दू देश ही होता था जिस में बोधि और जैनी थे लेकिन इन हमलावरों के कारण इस्लाम का प्रसार शुरू हो गया। यह इस्लामी देश अपने अपने देशों के संस्कार ले कर आये थे, जैसे फारसी जुबां और बिरियानी, कबाब और अन्य मुगलाई खाने, फारसी जुबां से ही उर्दू प्रचलत हो गया। इन हमलावरों ने इतिहास भी लिखा, जिस से उस समय के हालात पता चलते हैं। बहुत रीती रिवाज़ कुछ हम ने भी अख्तियार कर लिए हैं जैसे पर्दा जो घुंगट कहलाता था। मुसलमान औरतें बुरका पहनती हैं और भारती औरतों ने घुंगट अख्तियार कर लिया जब कि पर्दा हिन्दू सभ्यता का हिस्सा नहीं था। हमारे पुराने जितने भी खंडरात देखें, पर्दा कहीं दिखाई नहीं देता। हिन्दू धर्म में जौहर की रस्म भी इस्लामी हमलों के कारण शुरू हुई लगती है, यह मेरी सोच है। कारण यह हो सकता है कि इस्लामी देश भारती औरतों की बेइज़ती बहुत करते थे, उन को बाजार में बेच जाता था, जिस के भय से महल की सभी औरतें आग में जल कर राख हो जाती थीं। मुगलों के भारत में राज करने से बहुत तब्दीलियां आईं। अकबर बादशाह के जोधाबाई से शादी करने के कारण आगे जा कर इतना गहरा असर हुआ कि अभी तक मिक्स मैरेज हो रही हैं। पहले पहले जितने बिदेशी हमलावर आते थे, लूट मार कर के वापस अपने देशों को चले जाते थे लेकिन धीरे धीरे इन लोगों ने भारत को ही अपना देश बना लिया और जब यूर्पीन लोग भारत में आये, उस वक्त सभी मुसलमान हिन्दू आपस में मिल कर रहने लगे थे और मदरस्सों में हिन्दू लोग भी पढ़ने लगे थे। कई मुसलमान विद्वानों ने हिन्दू धर्म ग्रंथों को फारसी जुबां में लिखा जिन में ही दारा शिकोह का नाम लेना बनता है जो औरंगज़ेब का भाई था। इसी तरह हिन्दू सिखों ने उर्दू में मुहारत हासिल की जो अभी तक चल रही है और हम सब उर्दू शायरी ग़ज़ल आदि को अपना चुक्के हैं, यहां तक कि सिखों के धर्म ग्रन्थ में तो बाबा फरीद जैसे मुसलमानों की बाणी है। यहीं नहीं, सिखों के स्वर्ण मंदिर की तो नींव भी एक मुसलमान मिआं मीर ने रखी थी।
हमारे देश में कुछ और बिदेशी लोग भी आये जैसे पारसी। आज टाटा का नाम कौन नहीं जानता, जिन के पुरखे शायद कभी ईरान से आये थे। बेछक यह लोग भारती ही हैं लेकिन इन के भी कई अपने रीती रिवाज़ हैं। इसी तरह भारत में एक कौम ऐसी रहती है, जिन को बहुत कम लोग जानते हैं और वोह हैं सिद्दी लोग जो कोईं सात आठ सौ साल पहले अफ्रीका से आये थे। इन को मुग़ल हमलावरों ने अपनी फ़ौज में भर्ती करके लाया होगा इन में कुछ लोग गुजरात और कर्नाटक में रहते हैं और कुछ पाकिस्तान के कराची शहर और बलोचिस्तान में रहते हैं। यह लोग ज़्यादा मुसलमान ही हैं, जिन में कुछ ईसाई और कुछ हिन्दू भी हैं। बीबीसी पर बहुत साल हुए मैंने एक डाकूमैंटरी देखि थी, जिस में दिखाया गया था कि भारत में ही एक अफ्रीका है। यह लोग देखने में बिलकुल अफ्रीकन हैं लेकिन भारती ज़ुबानें बोलते हैं। भारती लोगों के साथ यह कभी मिक्स नहीं हो सके क्योंकि हम तो दलितों को ही नज़दीक नहीं आने देते, इन अफ्रीकनों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। कुछ तो अभी भी एक जंगल में रहते हैं और इन के अपने ही रीती रिवाज हैं। यह लोग एक लम्बा सा ड्रम बजाते हैं जो अफ्रीका में लोग बजाते हैं और अपने चेहरों को तरह तरह के रंगों से डैकोरेट करते हैं और लोगों का मनोरंजन करके अपनी उपजीविका का बंदोबस्त करते हैं। यह अफ्रीकन लोग सभी गुलाम नहीं थे, इन में कुछ वियोपारी भी थे और कुछ उस समय जहाज़ भी चलाते थे। अरबों में गुलामों का रिवाज़ तो आम ही होता था लेकिन यह गुलाम कभी कभी उनती करते हुए ऊंची ऊंची पदवियाँ हासिल कर लेते थे, यहां तक कि कई तो उनती करते करते हिंदुस्तान के बादशाह बन जाते थे जैसे कुतबदीन ऐबक। रज़िया सुलतान की बात करें तो उन के सम्बन्ध एक गुलाम याकूत से बने हुए थे। यह अफ्रीकन लोग मौज़म्बीक से भी आये थे जो वहां के बंतू कबीले से सम्बन्ध रखते थे, और इन को पुर्तगीज़ ले कर आये थे। पकिस्तान और भारत के सभी अफ्रीकन लोगों की संख्या पचास से साठ हज़ार है। इन की औरतें भारती औरतों की तरह कपडे पहनती हैं और भारती ज़ुबान बोलती हैं। इन्हें देख कर बहुत हैरानी होती है लेकिन अफ्रीका से इन का कोई वास्ता नहीं है और यह अपने आप को भारती कहलाते हैं और इन के बच्चे भी अब स्कूलों में पड़ने लगे हैं और कुछ तो सपोर्ट्स में आगे आने लगे हैं। यह लोग पूरी तरह भारती सभ्यता का अंग बन चुक्के हैं।
जब यूर्पीन लोग जैसे डच, फ्रैंच, पुर्तगीज़ और अँगरेज़ भारत में आये तो उन्होंने भारत पर अपनी शाप छोड़ दी। पुर्तगीज़ का प्रभाव, गोवा, दमन, देव और नगरहवेली में देखा जा सकता है। उन्होंने लोगों को ईसाई बना दिया और बड़े बड़े चर्च बना दिए। चाहे वोह जबरदस्ती ईसाई बनाये गए हों लेकिन अब यह ईसाई अपना धर्म कभी नहीं छोड़ेंगे और यह बिदेसी प्रभाव हमेशा के लिए हो गया। पांडिचेरी और इर्द गिर्द के कई इलाकों पर फ्रैंच का प्रभाव पढ़ गया। फ्रैंच लोग 1954 में भारत छोड़ गए थे और जाते जाते गहरी शाप छोड़ गए। अब अंग्रेजों की तो बात ही इलग्ग है। यह लोग तो सारे भारत को अंग्रेज़ी ज़ुबान ही ऐसी दे गए कि उन के जाने के बाद लोग फ़ख़र से अंग्रेज़ी बोलते हैं। बर्थडे हो, वैलेंटाइन डे हो, या हो नीऊ ईयर डे, बस अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है। मर्द, कोट पैंट और औरतें, स्कर्ट जीन्ज़ पहन कर पर्सन होती हैं। कोई वक्त था, जब औरतों का अपने बाल कटवाना असंभव होता था। अब तो हेअर सैलून खुल गए, बिउटी पार्लर जगह जगह बन गए हैं। हमारी सारी पढ़ाई इंग्लिश में है। कहने के अर्थ यह हैं कि अंग्रेज़ी सभ्यता का भारत पर इतना प्रभाव पढ़ा कि इस को विस्तार से लिखना भी असंभव दिखाई देता है।
इस माइग्रेशन का हम दूसरा पहलू देखते हैं। पहले पहल कुछ लोग इंग्लेंड को पढ़ाई के लिए आते थे लेकिन पिछले साठ सतर साल से बहुत भारती लोग दूसरे देशों को जाने शुरू हो गए। इस को मैं उलटी गंगा ही कहूंगा। बेशक हमारे भारती लोग कोई हमलावर बन कर नहीं गए। गए, सिर्फ रोज़ी रोटी के लिए लेकिन इन लोगों ने जो दूसरे देशों पर प्रभाव डाला, वोह इतना ज़्यादा है कि इस को सोच कर मैं कमाल ही कहूंगा। भारत पर राज करने वाले यूर्पीन लोग जैसे डच, पुर्तगीज़, फ्रैंच और अँगरेज़ तो भारत छोड़ते वक्त सभी चले गए लेकिन जो भारती उन के देशों को गए, वे वोह देश छोड़ने वाले नहीं हैं क्योंकि उन्होंने तो इन देशों की शैहरीअत ही ले ली और आगे की पीड़ीआं भारत वापस आने का सोचती ही नहीं हैं। आज मेरा यह कहना कुछ लोगों को अजीब लगे लेकिन सचाई यह ही है कि एक दफा बिदेसी बना, सदा के लिए बिदेसी हो गया। इस को गहराई तक सोचने की बात है। कोई डेढ़ दो सौ साल पहले बहुत से इंडियन लोग वैस्ट इंडीज़ के देशों में जा कर सैटल हो गए थे। ब्रिटिश गियाना में तो सरकार भी इंडियन लोगों की ही होती थी। यह लोग अछि तरह अफ्रीकन लोगों के साथ घुल मिल गए। मुझे याद है, हमारे साथ ऐसे इंडियन काम करते थे, जो जैमेका और बारबोडाज से आये हुए थे। वोह ज़्यादा इन देशों के लोगों से ही मिल कर रहते थे और जमेकन इंग्लिश ही बोलते थे। इन लोगों में एक होता था चार्ल्स दया राम। वोह हमारे लोगों से बहुत मिक्स अप्प था लेकिन वोह बोलता जेमेकन इंग्लिश ही था। मैं उन को अक्सर सवाल पूछता रहता था। वोह बताया करता था कि उस का दादा कोई इंडियन गीत गाया करता था। वोह मुझे हंस कर कुछ सुनाया भी करता था, जो मुझे बिलकुल समझ नहीं आती थी क्यूंकि हो सकता है यह लोग तामल या कोई और हों क्योंकि इन का रंग कुछ सांवला सा होता था। यह इंडियन लोग इस वेस्ट इंडियन सोसायटी में ही जज़्ब हो गए।
इसी तरह जो लोग किनियाँ और साऊथ अफ्रीका गए, वोह वापस नहीं आये। उन के घर ज़मीनें उन के रिश्तेदारों ने संभाल लीं। हमारे गाँव में एक मेरे पिता जी को छोड़ कर कोई वापस नहीं आया। कई लोग तो ऐसे भी थे जो अपनी पत्नियों को गाँव छोड़ आये थे, वोह वापस ही नहीं गए और वहीँ परदेस में शादीआं करा लीं। इंग्लैंड में यह मेरे देखने की बात है कि बहुत लोगों ने अपनी पत्नियों को पीछे छोड़ कर टूटी फूटी गोरियों से शादी करा ली थी और उन के बच्चे भी हो गए थे । वोह वक्त ऐसा था कि एक दफा कोई इंग्लैंड आ गया वोह आठ आठ दस दस साल बाद ही पीछे लौटता था। आज कल तो कमिउनिकेशन ही इतना तेज हो गया है कि भारत में रहती पत्नी अपने पति का पीछा नहीं छोड़ती।
पहली पीढ़ी होती है, उस का मोह अपने देश से अक्सर बहुत होता है लेकिन धीरे धीरे जब यहां बच्चे पैदा होते जाते है तो हम बज़ुर्ग लोग उन को भी देश प्रेम का वास्ता देते हैं और अपने पैसे खर्च करके बच्चों को देश ले जाते हैं लेकिन यह बच्चे इस देश में रह नहीं सकते। जब तीसरी पीढ़ी आ जाती है तो बात बहुत बदल जाती है क्योंकि उन की मदरलैंड तो उन की बर्थ प्लेस ही होती है। पीड़ीआं ख़त्म होती जाती हैं और हम अपने देश से दूर होते जाते हैं। आज सारा यूरप भारतीयों से भरा पड़ा है। पहले लोग अकेले आये थे। धीरे धीरे अपने परिवारों को भी ले आये, घर ले लिए, अपने मंदिर मस्ज़िद गुरदुआरे बना लिए, शहरियत हासिल कर ली, सियासत में भी सरगर्म हो गए और पक्के तौर से रहने लग गए। अब कैसे वापस मुड़ना संभव हो सकता है ! इस में दुखद बात यह है कि पहली पीढ़ी का दिल अपनी मात्र भूमि में रहता है और शरीर बिदेस में। यह बात दुसरी पीढ़ी में नहीं होती और वोह अपने माँ बाप की वजह से कुछ हफ्ते के लिए चले तो जाते हैं लेकिन वहां रह नहीं सकते। पहली पीढ़ी के दिमाग में एक बात जरूर रहती है कि अपने देश में ऊन का अपना अच्छा घर हो, जब जाएँ, अपना मकान खोल लें और यह एक रूह की आवाज़ होती है। इंग्लैंड में पहले पहल जो लोग आये थे, उन में ज़्यादा तर गरीब वर्ग ही था और उन की एक खाहश होती थी कि पैसे बचा कर ज़्यादा से ज़्यादा अपनी जमीन खरीदें ताकि अपने देश में कभी वापस गए तो मज़े से खेती बाड़ी करेंगे लेकिन जब इंग्लैंड में पक्की तरह सैटल हो गए तो उन जमीनों को संभालना मुश्किल हो गया क्योंकि जब उन के भाई बहनों ने देखा कि यह लोग तो अब वापस मुड़ने वाले नहीं हैं, उन्होंने उन की जमीन और मकानों पर जबरदस्ती कब्जे करने शुरू कर दिए। मुक़दमेबाज़ी शुरू हो गई और यह जमीन खरीदने का काम बिलकुल ख़तम हो गया। फिर कोठीआं बनाने का काम शुरू हो गया लेकिन धीरे धीरे पुराने लोग भगवान् को पियारे होने लगे या शारीरक रोगों से जूझने लगे और बच्चों के लिए वहां जा कर कोठियों को संभालना मुश्किल हो गया और अब आये दिन अखबारों में कोठी फॉर सेल के ऐड दिखाई देते हैं। बिदेशियों के लिए यह सब मृग तृष्णा बन कर रह जाता है।
भारत बहुत उनती कर रहा है लेकिन दुसरी तरफ हर भारती बिदेस जाने के लिए उत्सक है। मुझे इस बात की समझ नहीं आती कि हम यहां बैठे, भारत की उनती की बातें बहुत करते हैं लेकिन दुसरी तरफ भारतीयों को बाहर जाते देख कर सोच में पढ़ जाते हैं कि अगर भारत ने इतनी उनती की है, तो बाहर जाने की क्या जरुरत है। हम यहां बैठे सारी उम्र यह ही सोचते रहे कि अगर इंग्लैंड में हालात खराब हो गए तो अपने देश में अपना कुछ होना चाहिए। ना तो हालात इतने खराब हुए और ना ही हम जा सके। हर देश पर कभी कभी आर्थिक संकट तो आते ही रहते हैं। जब कभी ऐसा यहां होता है तो भारत की तरफ देखने लगते हैं लेकिन जब हम जाते हैं तो कुछ हफ्ते रह कर वापस दौड़ते आते हैं और ज़्यादा देर रहते भी नहीं। कभी इंडिया हालात खराब होते हैं तो चुप करके बैठ जाते हैं। हम सिखों के लिए 1984 का साल कभी भूलने वाला नहीं है, जिस में उस समय यहां से इंडिया गए हुए सिखों को भी बहुत दुःख उठाने पड़े थे। पिछले साल हरियाणे में जाटों के आंदोलन के वक्त एक ऑस्ट्रेलियन परिवार के साथ जो हुआ, उस के बाद कभी वोह भारत आएंगे ? , ऐसे दंगे तो किसी भी देश में हो सकते हैं लेकिन भारत में इन्साफ नाम की कोई चीज़ है ही नहीं। इन दंगों के अर्थ यह भी नहीं कि लोग भारत जाएंगे ही नहीं। ऐसा कुछ समय के लिए होता है और हम फिर ऐसी बातों को भूल जाते हैं।
अब आखर में मैं इस बात का ही ज़िक्र करूँगा कि हम ने बिदेस में रह कर, उस अपनाये देश पर किया प्रभाव छोड़ा। जब हम इंग्लैंड में आये थे तो पड़े लिखे भारतीयों को भी अछि नौकरी नहीं मिलती थी। ज़्यादा से ज़्यादा बस कंडक्टर या ड्राइवर ही रखते थे और इस के लिए भी हम को काफी जदोजहद करनी पडी थी। हमारा कोई गुर्दुआरा या मंदिर नहीं था। पिछले पचास साठ सालों में जो उनती इस देश में रह कर हम भारती या पाकिस्तानियों ने की है, उस के बाद अब हमारा यहां से वापस इंडिया या पाकिस्तान जाने का सोचना ही मूर्खता होगी। यहां की नैशनल हैल्थ सर्विस हमारे लोगों पर ही निर्भर है। हस्पतालों में हमारे डाक्टर और नर्सें इतनी है कि कमज़कम हर चौथा या पांचवां डाक्टर नर्स भारती है। पुलिस में, आर्मी में, मजिस्ट्रेट, वकील, टीचर, टैक्सी ड्राइवर यानी हर महकमे में हम को बराबर के हक हैं। बिज़नैस के फील्ड में भी हम पीछे नहीं हैं। यहाँ की सिआसत में भी बहुत बड़ा योगदान है। काऊंसलर, मेयर और एमपी तो आम हैं। लन्दन का मेयर आज एक पाकिस्तानी है जो बहुत माने रखता है। ऐसा ही अमरीका, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, इटली, डेनमार्क, और अन्या यूर्पिन देशों में है। अब तो इन देशों के लोगों ने भी मान लिया है कि हम यहाँ से नहीं जायेंगे और अंतराष्ट्रय शादीआं आम हो गई हैं। हमारे यहाँ आने से जो गोरे कभी हमारे खानों को नफरत करते थे, अब आम खाने लगे हैं और कुछ तो खुद भी भारती खानों को बनाने की कोशिश करते हैं। मैं पहले लिख चुक्का हूँ कि अब उलटी गंगा बहने लगी है, कभी यह पछमी देश भारत की तरफ आते थे और अब हम इन के देशों में रहने लगे हैं।
बस ऐसे ही सभिताओं में परीवर्तन होते रहते हैं और हम इतहास की किताबें पढ़ पढ़ कर यह ढूँढने की कोशिश में लगे रहते हैं कि हमारे बजुर्ग कहाँ से आये थे। एक दफा देश छोड़ कर बिदेसी हुए तो कुछ का कुछ हो जाता है। एक बात जरुर है, और वोह है पहली पीढी की अपनी मात्र भूमि की ओर रूह जो आख़री दम तक उस का पीछा नहीं छोडती .