पिंजरा
एक दिन पिंजरा से सुगना फरार ह्वै जाई,
धीरे धीरे पिंजरा पुरान ह्वै जाई।।
भाग्य भरोसे नर तन पायो,कबहूँ काम न हरीपद लायो।
ये तन धन तोहार बेकार ह्वै जाई।धीरे धीरे पिंजरा….
बचपन खेल कूद मे बीता,चेता नहि प्रौढ़व गया रीता।
ये चम चम सा हीरा,चिता मे जरि जाई।धीरे धीरे पिंजरा……
आयी जवानी तौ मन मस्तानी,कामहिं काम गए सब कामी।
नहिं कामिनी के मन के गुलाम बनो भाई।धीरे धीरे पिंजरा……
आया बुढ़ापा तो लोभ सताई,घर परिवार से नेह बढ़ाई।
काल सर पर जो आयो तो याद रघुराई।धीरे धीरे पिंजरा…….
काम क्रोध मद लोभ छोड़ के,मन से मन हरि नेह जोड़ के।
सदा मनवा मे करियो भजन हरषाई।धीरे धीरे पिंजरा……
भजन भजत सुर लोक गए हैं,धरा धाम धन छोड़ गए हैं।
काल उनकी थी आज तुम्हारि भई भाई।धीरे धीरे पिंजरा………
धन के मद मे अंधे हो गये,धर्म के धंधे मन्दे हो गये।
साथ रहते प्रभु ,पर पड़े न दिखाई । धीरे धीरे पिंजरा ……
जर जमीन जोरू जन तेरे,नेह लगा माया के प्रेरे।
ये दुनिया तुम्हारि बिरानि ह्वै जाई।धीरे धीरे पिंजरा…….
एक दिन पिंजरा से सुगना फरार ह्वै जाई। धीरे धीरे पिंजरा….
— जयप्रकाश शुक्ल ”प्रकाशबन्धु”