सामाजिक

संस्कार आचार – विचार वंशानुक्रम वातावरण एवम् अभिसमय

संस्कार आचार – विचार वंशानुक्रम वातावरण एवम् अभिसमय को झुठलाया नहीं जा सकता । मानवीय जीवन में उसके प्रभाव सतत देखने को मिलते रहते हैं । वक्त बदला वक्त की नज़ाकत बदली , लोगों के आचार-विचार रहन-सहन खानपान की व्यवस्थाओं में आधुनिकीकरण के प्रायोजनवाद का दबदबा बढ़ता जा रहा है । आज हमारे कदम फर्श को छोड़ अर्श के चक्रव्यूह में फँसते जा रहे है इंसान खुद के मकड़ जाल में फंसकर किंकर्तव्यविमूढ़ होता जा रहा है । आधुनिकीकरण की दौड़ प्रतिस्पर्धा की होड़ मानवीय जीवन को मशीनरी युग में तब्दील कर दिया है । खुद के ताने-बाने में इंसान इतना उलझता जा रहा है इसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानवीय मूल्य अपनी पहचान खोते जा रहे हैं उहापोह की जिंदगी के ठौर-ठिकाने बदलते जा रहे हैं । नाते – रिश्ते अब रिसते जा रहे हैं । आज आडंबर अपनी पराकाष्ठा पर बैठ मुँह चिढ़ा रहा है । कामना नर्तकी के नुपूर की झंकार कानों को वेध रहे हैं । मदन अट्टहास कर रहा है । कलि स्वर्ण सिंहासन पर बैठा स्वार्थ का आमंत्रण दे रहा है । भावना धृतराष्ट् बन अंधे होने का ढोग कर रही है । राजा कलि के आगोश में प्रणय क्रीड़ा कर रहा है । ऋतुराज बसंत के बाण से आहत न्याय घूर कर देख रहा है । मर्यादा कलि को जेठ मानकर दूर भागती जा रही है , उत्श्रृंखलता मण्डप में वरण कर कर रही है । धर्म का चौथा चरण अपने बुढ़ापे को कूढ़ रहा है । अरे मूढ़ क्या मुझे यह देखना था । नौ माह गर्भ में रखने के बाद पुत्र -तेरे लालन -पालन में आख़िर क्या कमीं रह गयी । पलक झपते ही रिश्तों को दरकिनार कर दिया , आख़िर मेरे संस्कार तेरे विचार में मेरा बुढ़ापा क्यों खल रहा है तू मेरे आँखों का चिराग है मेरी बगिया का सरताज है । माँ अतीत की गहराइयों में खोते ले रही थी , आँखों से बरबस आँसू टपक रहे थे । बेटा माँ से दूर जा चुका था । क्या इसे संतान या पुत्र कहते है जो अपनी माँ को भँवर में छोड़ दे । बेटा से तो बेटी भली जो अपने माँ के दुख दर्द को अपना समझ आत्मीय भाव से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए सतत तत्पर रहती है । माँ को विधाता के सृजन पर दुख था
काश कोई बेटी होती ,
यूँ मै अकेली ना लेटी होती ।
आख़िर इंसान क्यों देता है मान
घी की रोटी बेटे खाते
बेटी सूखी खाती है ।

अँग्रेज़ी बेटे को पढ़ाते
बेटी हिन्दी पढ़ती है ।
घर का चौका बर्तन करती
साहब भोग लगाते है ।
कैसे हैं घर दोयम दर्जे
भेद भेद कर जाते है
लंदन पढ़ने जाते बेटे
वहाँ के बन रह जाते हैं
दुल्हन लाते अँग्रेज़ी की
मातु पिता ना भाते हैं
अजब जमाना आईगा मिश्रा
कहने में शरमाते हैं ।

राज किशोर मिश्र 'राज'

संक्षिप्त परिचय मै राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी कवि , लेखक , साहित्यकार हूँ । लेखन मेरा शौक - शब्द -शब्द की मणिका पिरो का बनाता हूँ छंद, यति गति अलंकारित भावों से उदभित रसना का माधुर्य भाव ही मेरा परिचय है १९९६ में राजनीति शास्त्र से परास्नातक डा . राममनोहर लोहिया विश्वविद्यालय से राजनैतिक विचारको के विचारों गहन अध्ययन व्याकरण और छ्न्द विधाओं को समझने /जानने का दौर रहा । प्रतापगढ़ उत्तरप्रदेश मेरी शिक्षा स्थली रही ,अपने अंतर्मन भावों को सहज छ्न्द मणिका में पिरों कर साकार रूप प्रदान करते हुए कवि धर्म का निर्वहन करता हूँ । संदेशपद सामयिक परिदृश्य मेरी लेखनी के ओज एवम् प्रेरणा स्रोत हैं । वार्णिक , मात्रिक, छ्न्दमुक्त रचनाओं के साथ -साथ गद्य विधा में उपन्यास , एकांकी , कहानी सतत लिखता रहता हूँ । प्रकाशित साझा संकलन - युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच का उत्कर्ष संग्रह २०१५ , अब तो २०१६, रजनीगंधा , विहग प्रीति के , आदि यत्र तत्र पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं सम्मान --- युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच से साहित्य गौरव सम्मान , सशक्त लेखनी सम्मान , साहित्य सरोज सारस्वत सम्मान आदि