ग़ज़ल
जब बेजुबां हो इश्क़ तो क्या लिखे कलमा कोई
पत्थर ए महबूब हो तो क्या लिखे कलमा कोई
जब जलाए जाते हैं सुन अहसासों के पन्ने यहां
हां फिर वफा में डूबकर क्या लिखे कलमा कोई
ये दिल तो कहता है लिखें हम एक लंबी दास्तां
पर कोई पढ़ता नहीँ तो क्या लिखे कलमा कोई
अब कहां वो दिल रहे जिनको वफा मंज़ूर थी
अब वफा मिलती नहीँ क्या लिखे कलमा कोई
दूध की नदिया बहा दी वो दीवाने और थे
अब अश्क भी गिरता नहीँ क्या लिखे कलमा कोई
हम देखते हैं आज ‘जानिब’ रंजो ग़म की बारिशें
अपना ही अपना नहीँ तो क्या लिखे कलमा कोई
— पावनी दीक्षित ‘जानिब’