वासंती श्रृंगार
जब से तुम मेरे मन में हो उतरे
जीवन के तुम प्राणदाता बन गए
बासंती श्रृंगार मन को भाए
रूप भी तुम्हें देख के इतराए।
वीरान मन में प्रेम कोंपलें उगी
अब मन वश में करना आसान नहीं
रंगीला मौसम प्यार का बताए
मेरे मीत ! तन -मन हैं बौराए।
चंदा की चाँदनी लाई सौगात
सुना रही मुझे मन से मन की बात
मायूसी , विरहाग्नि को हर जाओ
हकीकत की बारात बन के आओ।
प्रेम रंग लिए निहारूँ दर्पण
बेचैन तन – मन किए तुम्हें अर्पण
नयनों ने नयनों से की है बात
दिन – रात हुए अब तुम्हारे साथ।
ढोल , डफली , मंजीर, झाँझ झंकार
दशों दिशाओं में कर रहीं पुकार
मन प्रीत ! बनके कर रही इजहार
आजा -आजा मेरे वसंत बहार।
‘ प्रेम उत्सव ‘ का दिवस फिर से आया
अरमानों ने प्रेम नगर सजाया
चाहत का फूल गुलाब बन के आ जा
मन आँगन ख़ुशी को ‘ मंजु ‘ महका जा।
— मंजु गुप्ता , वाशी , नवी मुंबई