वेद प्रचार ही श्रेष्ठ मानव निर्माण और देश व समाज की रक्षा का आधार
ओ३म्
सभी माता, पिता व आचार्य चाहते हैं कि उनकी सन्तानें व शिष्य आदि श्रेष्ठ मनुष्य बनें। वेद ने भी लगभग दो अरब वर्ष पहले कहा ‘मनुर्भव’ अर्थात् हे मनुष्य, तू श्रेष्ठ मनुष्य बन। मनुष्य बनने से वेद का क्या अभिप्राय है? मननशील व्यक्ति ही मनुष्य कहा जाता है। जो मनुष्य मनन न कर सत्य व असत्य के विवेक से हीन है वह मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं होते। आजकल हम देख रहे हैं कि मनुष्य अपने निजी जीवन में परम्परागत रूप से मानी जानी वाली बातों को ही बिना मनन व चिन्तन किये स्वीकार कर लेते हैं और उसी में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं। वह समझते हैं कि उनकी परम्परायें सत्य व अनुभवों पर आधारित हैं परन्तु उन्हें यह पता नहीं होता कि हमारी सभी परम्परायें व मान्यतायें प्राचीन न होकर कुछ प्राचीन व अधिकांशतः मध्ययुगीन वा मध्यकालीन हैं। मध्यकाल का अर्थ है कि घोर अज्ञान का युग। यह युग महाभारत काल के कुछ हजार वर्षों बाद आरम्भ हुआ। हुआ यह कि महाभारत काल में विद्वानों एवं वीर योद्धओं के मारे जाने से देश व समाज में अव्यस्था फैल गई थी जिसका परिणाम यह हुआ कि शनैः शनैः अन्धकार बढ़ने लगा और ऐसा युग आया जो घोर अन्धकार का युग था। इस अंधकार के युग को ही मध्यकाल कहा जाता है। इस युग में ही वेदानुसार की जाने वाली निराकार ईश्वर की उपासना का स्थान साकार पाषाण व धातु की मूर्तियों ने ले लिया। इसके लिए ईश्वर के अवतार की कल्पना की गई। इसके लिए भी इतिहास के ग्रन्थों रामायण व महाभारत से मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम व योगेश्वर श्री कृष्ण के पावन चरितों को लेकर उन्हें ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया गया। महाभारतकाल के कुछ ही काल बाद ऋषि परम्परा के समाप्त हो जाने के कारण अज्ञानियों व स्वार्थी लोगों को चुनौती देने वाले लोग नहीं थे। अतः वह जो कल्पना कर लेते थे वही मत व मान्यता अथवा सिद्धान्त बन जाता था। इसी प्रकार मूर्तिपूजा, अवतारवाद सहित मृतक श्राद्ध और फलित ज्योतिष एवं भाग्यवाद का भी आरम्भ देश व समाज में हो गया। कालान्तर व इसी समय जन्मना जातिवाद का प्रचलन हुआ। समाज में जो ज्ञान से रहित सेवा कर्म करने वाले कर्मणा शूद्र थे उन्हें अस्पश्र्य बना दिया गया और उनके बच्चों व स्त्रियों को शिक्षा व वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। ऐसा लगता है कि यह सब कुछ मध्यकाल के स्वार्थी लोगों ने अपनी आजीविका व स्वार्थों के कारण किया जिस पर विचार कर विद्वान अपने अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं। ऐसे ही अज्ञान व अन्धकार के समय में संसार के सभी मत अस्तित्व में आये जिनमें अविद्या भरी हुई है। सभी मतों की अविद्या को दूर किया जाना आवश्यक है अन्यथा मनुष्य अनावश्यक व अविद्यायुक्त व्यवहार व आचरण करके अपनी व देश एवं समाज की हानि करते रहेंगे। इस अविद्या के नाश व विद्या की वृद्धि के लिए महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार, आर्यसमाज की स्थापना व शास्त्रार्थ आदि कार्यों को किया था। उनका आन्दोलन अनेक कारणों से सफल नहीं हुआ जिस कारण संसार में सर्वत्र अशान्ति, दुःख व क्लेश दृष्टिगोचर हो रहे हैं और किसी के पास इनका समाधान नहीं है।
श्रेष्ठ मानव निर्माण की देश व समाज को आवश्यकता क्यों हैं? इसका उत्तर है कि देश के नागरिक जितने अधिक सत्य विद्याओं में शिक्षित, सभ्य, सुस्कृतज्ञ एवं श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाले होंगे उतना ही उन मनुष्यों के अपने हित में होगा और उनसे देश व समाज को भी अपूर्व लाभ होगा जो साधारण, अशिक्षित, सामान्य गुणों वालों व विपरीत गुणों, अवगुणों व बुरे कामों को करने वाले नागरिकों व मनुष्यों से देश व समाज को प्राप्त नहीं होता। मनुष्य श्रेष्ठ गुणों से युक्त होता है तो उसको मानसिक सुख व शान्ति, सन्तोष एवं प्रसन्नता आदि गुणों का लाभ होता है। इसके विपरीत सद् गुणों से रहित मनुष्य सुखी व प्रसन्न नहीं हो सकता। ऋषियों व विद्वानों ने विवेचना कर निष्कर्ष निकाला है कि संसार में सबसे अधिक मूल्यवान ज्ञान है न कि धन दौलत आदि वस्तुयें। ज्ञानवान मनुष्य ज्ञान से धन व दौलत अर्जित कर उसका सदुपयोग कर स्वयं व दूसरों को लाभ पहुंचाता है जबकि अज्ञान से युक्त व्यक्ति का धन दौलत आदि प्राप्त करना ही कठिन है और यदि वह संग्रह कर भी ले तो वह दूसरे पात्र मनुष्यों में उसका वितरण न कर परिग्रही होकर देश व समाज के लिए अहितकर होता है। ऐसा ही आजकल हो रहा है जिससे देश व समाज कमजोर हो रहे हैं। अतः मनुष्यों का श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव से युक्त होना मनुष्य के अपने हित के साथ देश व समाज के हित में भी होता है।
मनुष्यों को श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभावों से युक्त करने के उपाय क्या हैं? इसका सर्वोत्तम उपाय यह है कि उसे वैदिक शिक्षा व संस्कारों में दीक्षित करना। वैदिक संस्कारों से दीक्षित मनुष्य सत्य का आचरण करेगा, ईश्वर का उपासक होगा, परोपकारी, दानी, देशभक्त, गोभक्त, मांसाहार का विरोधी, पशु हिंसा का विरोधी, गुणग्राहक, विद्याविलासी, माता-पिता-आचार्यों आदि का आदर व सम्मान करने वाला, संयमी, निर्लोभी, अपरिग्रही, यज्ञप्रेमी, पृथिवी को माता मानने वाला आदि अनेकानेक गुणों से सम्पन्न होता है। इसके विपरीत हम समाज के लोगों को इन गुणों से रहित अथवा न्यून गुणों वाला पाते हैं। इसी कारण समाज में अशान्ति व नाना समस्यायें विद्यमान हैं। इनका समाधान एक मात्र वैदिक शिक्षा व संस्कारों के प्रचार प्रसार व अध्ययन-अध्यापन से ही हो सकता है न कि किसी मत व सम्प्रदाय की शिक्षा व मान्यताओं के आधार पर। अतः देश व समाज के शिक्षाविदों व नीति निर्धारकों को इस विषय में निष्पक्षता व निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर विचार करना चाहिये। इसी में उनका व देश का हित के साथ हमारी भावी पीढ़ियों का भी हित है।
हम यह भी अनुभव करते हैं कि नई पीढ़ी को इस बात की शिक्षा दी जानी चाहिये कि वह अपने जीवन में किसी भी बात को बिना मनन व विचार किये स्वीकार न करें, भले ही वह धार्मिक मान्यता ही क्यों न हो। इसी प्रकार से सभी सामाजिक मान्यताओं पर भी गम्भीरता के साथ मनन व चिन्तन करके ही स्वीकार करना चाहिये और उसी का आचरण करना चाहिये। जो व्यक्ति निर्णय न कर सकें वह ऐसे व्याक्तियों की तलाश करें जो निष्पक्ष एवं साम्प्रदायिक विचारों व परम्पराओं से मुक्त, सत्य के प्रेमी व देश हितैषी हों। अपने अपने मत के प्रति समर्पित होना व उसके अहितकारी कार्यों व विचारों को भी मानना धर्म व पुण्य कार्य नहीं कहे जा सकते। किसी व्यक्ति का लोभ व लालच के द्वारा धर्म परिवर्तन करना भी अधर्म व पाप का कार्य है। अपनी कमियों पर ध्यान न देना और उसे श्रेष्ठ मानना भी अमानवोचित कार्य है। असत्य, हिंसा, मांसाहार आदि भी उचित नहीं कहे जा सकते। ईश्वर सब प्राणियों का माता व पिता के समान है। वह अपनी ही सन्तान पशु व पक्षियों की हत्या की किसी भी हाल में आज्ञा व अनुमति नहीं दे सकता। ऐसा करना सदा से पाप रहा है और सदा रहेगा और ईश्वर की व्यवस्था से दण्डनीय भी होगा। अतः समाज को अपनी सोच को बदलने की आवश्यकता है। जब तक संसार के लोग, मुख्यतः मत-मतानतरों के मानने वालों की सोच नहीं बदलेगी, वह सत्य पर स्थित व स्थिर नहीं होगी, संसार में कभी शान्ति व सुख का वातावरण नहीं बन सकता। इस मृग-मरीचिका में जीना विचारशील मनुष्यों को छोड़ देना चाहिये और सत्य पर विचार करके मानव जाति के हित में कठोर निर्णय करने चाहिये जिससे हमारा आज व कल सुरक्षित रह सकें। आज ऐसा देखा जा रहा है कि कुछ सामाजिक एवं राजनीतिक दल अपने वर्तमान के हित व स्वार्थों के लिए देश व समाज के दूरगामी हितों की उपेक्षा कर उनसे खिलवाड़ कर रहे हैं। समाज में इसके प्रति जो चिन्ता होनी चाहिये वह देखने को नहीं मिल रही है। इससे देश का भविष्य भी भयावह प्रतीत होता है। समाज के अग्रणीय लोगों को सभी समस्याओं पर विचार कर उनका समाधान करना चाहिये। अन्त में यही निष्कर्ष निकलता है कि इसके लिए मानव को श्रेष्ठ व सुसंस्कारित मानव बनाना होगा जो कि हमें लगता है कि वैदिक संस्कारों व वेदों के स्वाध्याय व वेदेानुसार कर्मों व आचरणों को करके ही बन सकता है। हमारे समान वैदिक शिक्षाओं के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य, महर्षि दयानन्द एवं सभी ऋषि-मुनि हैं। इनके आदर्श जीवन से भी प्रेरणा ली जा सकती हैं। यह सभी युग पुरुष वैदिक संस्कृति की देन थे व देश व समाज के लिए आदर्श हैं। इन्हीं शब्दों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य