चुनावी साँप
ढ़ेर सारे साँप निकले है आजकल दौरों पर
जो हमेशा ही चुनावी मौसम मे निकलते है !
ढ़ेर सारे सपने हम सभी को दिखलाते है ये
फिर सारे सपनो को ये पाँच साल छलते है !
जनता ब़ेहाल रहती और भी परेशान रहती
इनके तो सिर्फ अपने ही रिश्तेदार फलते है !
सियासती खिलाड़ी अपना खेल दिखा रहे
माहौल को देखकर अपने चेहरे बदलते है !
साहित्य सेवक-
बेख़बर देहलवी
भा० सा० उ० स०