सामाजिक

एक ऋषि दयानंद भक्त अपंग बन्धु श्री दौलत सिंह राणा

ओ३म्

ऋषि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज धामावाला देहरादून के प्रमुख सदस्य रहे श्री दौलत सिंह राणा जी से आज उनके निवास पर भेंट करने का अवसर मिला। सम्प्रति वह 79 वर्ष के हैं। देहरादून की प्रसिद्ध ईसाई संस्था ‘रैफेल होम’ में उनका निवास है जहां वह कुष्ठ रोगियों की कालोनीया बस्ती ‘शिव सदन’ में रहते हैं। राणा जी किशोरावस्था में कुष्ठ रोग से ग्रस्त हुए थे। तब वहां लोगों से उन्हें देहरादून में ईसाई संस्था द्वारा संचालित रैफेल और चेसायर होम की जानकारी मिली थी। यहां ईसाई मिशनरियों की ओर से कुष्ठ रोगियों का निःशुल्क उपचार किया जाता था। न केवल उपचार ही वरन् उनके भोजन व निवास की निःशुल्क सुविधा, चिकित्सा काल व उसके बाद भी उपलब्ध कराई जाती थी। राणा जी ने अपना उपचार कराया और स्वस्थ हो गये। उन दिनों व अब भी शायद, कुष्ठ रोगी के परिवार वाले अपने रोगी सदस्य को स्वीकार नहीं करते। बताते हैं कि अब कुष्ठ रोग का उन्मूलन हो गया है। पुराने कुष्ठ रोगी आज भी रैफेल होम जाने पर दिखाई दे जाते हैं जो अपने परिवार के सदस्यों के साथ रहते हैं। यह भी बता दें कि कुष्ठ रोगियों के परिवार के लोग स्वस्थ उत्पन्न होते हैं। रैफेल होम उनकी शिक्षा की भी व्यवस्था करता है। बच्चे पढ़ लिख कर सरकार व प्राइवेट नौकरी प्राप्त कर लेते हैं। अधिकांश लोग प्रायः ईसाईयत से भी प्रभावित होते रहे हैं। इनमें कुछ को विदेश जाने का अवसर भी मिल जाता है। हमें ऐसा कोई अवसर देखने को नहीं मिला कि जब इन हिन्दू रोगियों की हमारे देहरादून के प्रमुख आर्यसमाज, अन्य किसी आर्यसमाज व हिन्दू संस्था ने चिन्ता की हो व उनके लिये सहानुभूति प्रदर्शित करने का कार्य किया हो।

श्री दौलत सिंह राणा अपनी चिकित्सा के दौरान आर्यसमाज के सम्पर्क में आये थे। आपने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने के बाद आर्यसमाज आना आरम्भ कर दिया था और साप्ताहिक सत्संगों में भाग लेते थे। आर्यसमाज के युवा उत्साही विद्वान श्री अनूप सिंह जी दृष्टि उन पर पड़ी थी। उन्होंने वर्ष 1994-95 में आर्यसमाज की बागडोर मिलने पर राणा जी को प्रोत्साहित किया और आर्यसमाज में उनके व्याख्यान कराये। इसके बाद हमने पारिवारिक सत्संगों में भी उनके प्रवचन कराये। हमारी उनसे निकटता बढ़़ी। सन् 1997 में हिण्डोन सिटी में पं. लेखराम बलिदान शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया था। श्री राणा जी हमारे कुछ मित्रों के साथ इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुए थे। वहां पं. राजेन्द्र जिज्ञासु, कैप्टेन देवरत्न आर्य, श्री अरुण अबरोल जी, स्वामी सुमेधानन्द, राजस्थान, स्वामी सम्पूर्णानन्द सरस्वती, भजनोपदेशक श्री सत्यपाल सरल एवं पं. नरेश दत्त जी और श्री प्रभाकरदेव आर्य जी की उपस्थिति में एक संक्षिप्त प्रवचन भी किया था। श्री राणा जी की मासिक आय लगभग शून्य है तथापि आप गुरुकुल पौंधा, देहरादून तथा वैदिक साधन आश्रम तपोवन के उत्सवों में सम्मिलित होते रहते हैं और उन्हें दान भी देते हैं। हम जब भी उनसे मिलने जाते हैं तो वह जलपान आदि से हमारा सत्कार करते हैं। उनकी पत्नी श्रीमती उषा देवी जी का भी हमसे व हमारे परिवार से बहुत स्नेह है। उनके ही परिवार की उनकी एक दत्तक पुत्री है जो पंजाब नैशनल बैक में अधिकारी है। आप इस स्थिति में सुख व चैन से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वृद्धावस्था आदि के कारण समय समय पर रोग आते जाते रहते हैं जिनका आप उपचार कराते रहते हैं और स्वस्थ हो जाते हैं। आज भी राणा जी अपने अतीत को याद करके कह रहे थे कि इतनी मुसीबतें झेलने के बाद भी परमात्मा ने उन्हें इस 79 वर्ष की आयु में भी जीवित व स्वस्थ रखा हुआ है? ईश्वर को वह इसके लिए धन्यवाद करते हैं।

श्री दौलत सिंह राणा जी के पास रैफेल होम की कालोनी शिव सदन में एक छोटा सा कमरा व रसोई है। आपकी धर्मपत्नी जी इसे साफ सुथरा व सजा धजा कर रखती हैं। पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की पत्नी बेगम आबिदा अहमद आपके इस छोटे से कमरे में आकर आपसे बातें कर चुकी हैं। पूर्व राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी भी आपके इस कमरे में पधार चुके हैं। अनेक विदेशी लोग आपके यहां समय समय पर आते हैं और आपके कमरे का वीडियों ले जाकर विदेशों में प्रचार करते हैं। एक बार पूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम जी भी रैफेल होम आये थे। श्री राणा जी को कविता लिखने का शौक है। आपने उन पर भी एक मार्मिक एवं गौरवपूर्ण कविता लिखी जिसे उन्होंने राष्ट्रपति जी की उपस्थिति में पढ़ा था और बाद में उन्हें भेंट किया। इस कविता को सुनकर राष्ट्रपति महोदय प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने आसन से उठकर राणा जी की पीठ थपथपाते हुए कहा ‘Well Done, Rana jee’.  राणा जी के बारे में ऐसी हमारी अनेक स्मृतियां हैं। हम तो उनकी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज भक्ति पर मुग्ध हैं। उन जैसी विपरीत परिस्थितियों में रहकर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के प्रति श्रद्धा भाव रखना वस्तुतः आश्चर्यजनक है।  यह भी बता दें कि हम राणा जी के साथ लगभग दो घंटे रहे और इस बीच हमने अधिकांश समय आर्यसमाज के सिद्धान्तों व ऋषि दयानन्द के त्याग व बलिदान की ही चर्चा की।

राणा जी से मिलकर हम रैफेल होम से लगभग 2 किमी. दूरी पर स्थित ‘‘चेशायर होम” के सामने से निकले। यह होम भी अपंग व विकलांग बच्चों के पालन पोषण के लिए ईसाईयों ने ही बनाया, इसे धन व मानवीय गुणों से सींचा है। आज भी देश के बड़े बड़े प्रसिद्ध धनवानों के बच्चे यहां रहते हैं जिनका आदर्श रूप में पालन पोषण किया जाता है व पूरा ध्यान रखा जाता है। धनिक हिन्दू तो अपने बच्चों का पालन भी नहीं कर सकते, यह यहां आकर देखा जा सकता है। भले ही ईसाईयों से हमारा सैद्धान्तिक मतभेद हो, परन्तु उनके कुछ सेवा कार्य, भले ही वह प्रलोभन से ही क्यों न हों, देख कर एक बार तो उनके कार्यों के प्रति श्रद्धा पैदा होती ही है। हमारे राणा जी को गांव व परिवार ने पराया बना दिया था। किसी हिन्दू व आर्य ने उन्हें नहीं अपनाया। आर्यसमाज में भी उनके प्रति किये जाने वाले उपेक्षा के व्यवहार को देखकर दुःख ही होता है। ऐसे में हमारे हमारे देश के समस्त लोगों को जीने की उम्मीद देना व उसे साकार करना आश्चर्यजनक है। इन ईसाई भाईयों के पास न वेद थे और न ही वैदिक ज्ञान था तथापि इन्होंने कई ऐसे कार्य किये हैं जिसके लिए हमें इनका धन्यवाद तो करना ही चाहिये। आज भी हमारे देश के पढ़े लिखें युवा लोग अपने देश से ज्यादा पश्चिमी ईसाई देशों में जाकर काम करना और रहना पसन्द करते हैं। वेदों व आर्य सिद्धान्तों का दूसरों पर तो क्या प्रभाव पड़ेगा, हम अपने ही लोगों को उसे मनवा नहीं पा रहे हैं।

हमने अपने मित्र श्री दौलतसिंह राणा जी का उल्लेख करते समय कुछ बातें ऐसी कह दी हैं जो हमारे आर्य भाईयों को अप्रिय लग सकती हैं। ऋषि और आर्यसमाज का अनुयायी होते हुए भी हमें इनको लिखने में कोई संकोच व अनुचित व्यवहार प्रतीत नहीं होता। मनुष्य जब दुःखी होता है तो अपनों से अपेक्षा करता है। ऐसे में यदि अपने उसे ठुकरा दें और पराये लोग अपना कर अपनों से भी अच्छा व्यवहार करें तो उनका वह कार्य प्रशंसा योग्य तो होता ही है। हमने रैफेल होम में कुछ युवा ईसाई युवक व युवतियों को कुष्ठ रोगियों के बच्चों से हंसते बोलते व खिलखिलाकर हंसते भी देखा है। दूर से यह दृश्य देख कर हमने अपने मन में आनन्द की अनुभूति की है। ईसाई प्रचारकों की कुछ बुराईयों को छोड़ कर यदि हम उनकी अच्छाईयों को अपना लें, तो हमारा प्रचार अधिक प्रभावशाली हो सकता है। हमें यह भी लगता है कि जब तक हम ईसाईयों जैसी दूसरों की सेवा नहीं करेंगे, हम उन्हें अपना नहीं बना सकते। लेख को हम यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य