गज़ल
सुलगता तो रहा खुल के कभी पर जल नहीं पाया,
शायद मैं हालातों के मुताबिक ढल नहीं पाया,
अल्फाज़ भी ना थे और कुछ वक्त भी कम था,
कहना तो बहुत कुछ था मगर मैं कह नहीं पाया,
जो मौसम की तरह थे रंग उन्होंने बहुत बदले,
मैं इंसान था शायद तभी मैं बदल नहीं पाया,
पत्थरदिल हूँ यूँ तो फर्क मुझको कुछ नहीं पड़ता,
तेरी बेरूखी हमदम मैं फिर क्यों सह नहीं पाया,
मेरी बेचैनियां दर पे तेरे ले आईं फिर मुझको,
सोचा था कि रह लूँगा मगर मैं रह नहीं पाया,
करना था बहुत कुछ वक्त की पर उलझनों में मैं,
उलझा ऐसा कि ता-ज़िंदगी संभल नहीं पाया,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।