भक्ति में दृढ़ता कैसी हो
तन और मन दोनों की निर्मलता से की गई उपासना तुरंत फलीभूत होती है.इसीलिए यम, नियम, आसन प्राणायाम आदि द्वारा तन और मन को शुद्ध करने की बात कही गई है.विधि और विधान के द्वारा व्यवस्था अनुशासित होती है ,बिना अनुशासन के न तो समाज की रह सकता है न ही धार्मिक कर्म .
आपको भक्ति करने के लिए कोई विशेष योग्यता या सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं होती है, आप ज्ञानी व्यक्ति हैं या नहीं, या आप धनी हैं या निर्धन हैं ,इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ,भक्ति मे ये सब बाते न्यून है.मन मे इच्छा हो ,परम तत्व को जानने की जिज्ञासा हो ,तो भक्ति सर्व श्रेष्ठ मार्ग है.लगन हो तो कोई कार्य असंभव नही होता .निश्चयात्मिका बुद्धि तथा निरंतरता अति आवश्यक है. तब आप भक्ति कर सकते हैं.
भक्ति आपकी जिदंगी को सुधारने के लिए एक महत्वपूर्ण शस्त्र है. आप महसूस करते हैं, भक्ति की शक्ति को . यदि आपको किसी रूकावट से मुकाबला करना काफी कठिन लगता है ,और आपकी भक्ति की साधना अनवरत चल रही है तो कई बार इससे चमत्कार होते दिखाई देते है .मतलब आपमे एक विशेष शक्ति का आभास होने लगता है ,
आप जो कर सकते हैं, वो तो आप करते ही हैं. पर जो आप नहीं कर सकते हैं,उसके लिए आपकी भक्ति कार्य कर देती है.
जब भी आप कुछ करते हैं, तो ये जान लें कि सर्वोत्तम शक्ति ही अंतिम हैं और आप उस सर्वोत्तम शक्ति से अपनी भक्ति के द्वारा संपर्क में रह सकते हैं.
भक्ति का अर्थ यह नहीं होता है कि सिर्फ बैठकर कुछ शब्दों का उच्चारण किया जाये. इसका अर्थ है कि आप स्वच्छ, शांत और ध्यान की अवस्था में हैं.आपका चित्त उस परम तत्व मे लगा हुआ है जब आप भक्ति मे लीन रहते है तो उसमें आप संपूर्ण रूप से होते है यह नहीं की
मन कहीं और है या मन पहले से ही कहीं व्यस्त है ,
भक्ति आत्मा की पुकार होती है. ये तब होती है जब आप परम तत्व को महसूस कर रहे होते हैं
जब आप अपनी परिसीमा और सीमाओं के संपर्क में आ जाते हैं.तब भक्ति अपने परम तत्व के संपर्क मे आती और
आपको आत्म संतोष प्राप्त होता है .