समकालीन दोहे
दुनिया कैसी हो गई, कैसे हैं अब लोग !
पूजा से सब दूर हैं, चाहें केवल भोग !!
सेवक बनकर घूमते, पर करते हैं राज !
सेवा का कोई नहीं, करता है अब काज !!
सत्ता पाना हो गया, अब कितना आसान !
पर ऑफिस में भृत्य का पद मुश्किल, यह जान !!
जो सच्चे, वो रो रहे, झूठों पर मुस्कान !
नम्बर दो से ही बढ़े, अब इंसां की शान !!
फैशन करके हो गई, अब नारी अडवांस !
कुछ भी करने को खड़ी, मिल जाये बस चांस !!
वे ऊंचे पैकिज बिकें, जिनकी डिग्री उच्च !
उनको लगता देश यह, बिलकुल बिरथा,तुच्छ !!
आशाएं धूमिल हुईं, टूट रहे विश्वास !
दर्द,पीर में हैं घिरे, वर्ष, दिवस औ’ मास !!
रिश्ते बेमानी हुये, सिसक रहे अनुबंध !
स्वारथमय अब दिख रहे, सारे ही सम्बंध !!
डिग्री सबके पास है, पर हरगिज़ ना ज्ञान !
इनसानी जज़्बात से, हर कोई अनजान !!
जीवन जीवन ना रहा, ना ही यह वरदान !
जीवन की जो असलियत, कोई ना अनजान !!
— प्रो. शरद नारायण खरे