एक रंग ऐसा भी
सड़क पार स्थित लाला जी की दुकान से अवसादित मन लिये लौटी दिव्या पलंग की पीठ से सिर टिकाए आँखें मूँदे सोच में डूबी थी कि रंग-पर्व आया और कुछ लोगों को रंग कर और कुछ को बिन रंगे गुज़र गया पर यह कौनसा रंग है ,जिससे मन रंग कर आ रही है वह ?उसकी बंद पलकों के पीछे होली से एक दिन पहले का दिन आ खड़ा हुआ,जब उसने शगुना बाई से हुलसते हुए पूछा था, ” कहो शगुना! होली की सब तैयारियाँ हो गईं?” तो उसने एक गहरी ठंडी साँस ले कर कहा था,” काहेकी तैयारियाँ बीबी जी! हम गरीबन को दो जून रोटी मिल जावे तो हमरी होली बी मन जावे जी और दिवाली बी।”
उसके नयन भीग गये थे । वह तुरंत लाला जी की दुकान पर जा पहुँची थी और लाल, गुलाबी,पीला गुलाल, कुछ पक्के रंग, गुब्बारे, पिचकारियाँ और कुछ बिस्कुट के पैकेट्स खरीद कर लौटी थी। फिर परम संतोष और दाता के से भाव से वो सब उसे देते हुए बोली थी,” लो शगुना! बच्चों से कहना कि खूब होली खेलें ।”
होली के अगले दिन उसने शगुना से पुलकते हुए पूछा,” बच्चों ने जम कर होली खेली न शगुना?”
” जी बीबी जी! राम जी आपका भला करें,” हाथ जोड़ कर कृतज्ञ भाव से कहा था उसने ।
लेकिन आज जब वह लाला जी की दुकान पर कुछ सामान लेने गई तो वह बोले,” दिव्या बिटिया ! तुम अपनी शगुना के लिये होली की जो चीज़ें ले गई थीं न, उनको लौटा कर वह उसी रोज , आटा, सूजी, घी और शक्कर ले गई। ”
” पर क्योंयोंयों… ?” तड़प उठी थी वह।
” यही सवाल हमने भी पूछा था बिटिया! तो वह बोली,’ लाला जी! हमरे बालक कोहुको रंग लगावेंगे तो कोई उनको बी रंग लगावेगा। नाहक ही एक-एक जोड़ा कपड़ों का बरबाद होवेगा। और अगर हम हलवा-पूड़ी बनाके उनको खिलावेंगे ना जी , तो सही माने में उनका होली का त्योहार मन जावेगा …खूब मस्त।’ बात तो हमें भी सही लगी थी बिटिया”
” ओह लाला जी! मैं नहीं जानती थी कि दुनिया में एक रंग ऐसा भी होता है ,जो भूख के चेहरे पर पोता जाता है,” कह कर व्यथित हृदय लिये चली आई थी वह और……
— कमल कपूर