लघुकथा —धन्धा आत्म सम्मान का
“क्या कहा 500 रूपये… एक बार की परिक्रमा के वो भी… रिक्शे में सिर्फ बच्चे को ही बैठना है,, हम लोगों को नही ”
“साब… पूरे दिन मे एक ही परिक्रमा कर पाते है… इस मंहगाई मे इस कमाई में घर चलाना भी मुश्किल है…
चलिए 50 कम दे देना “रिक्शे बाला गोवर्धन परिक्रमा को आये सेठ सेठानी से बडी ही आशा भरी नजरो से बोला।
“नही… 350 से ज्यादा नही दूंगी…. ”
“क्या करती हो भाग्यवान,,, बडी मिन्नतों से बेटा पाया है और तुम तोल -मोल करने लगी… ये भी हमारे पुण्य का हिस्सा है जो हमारे साथ पूरी परिकथा मे साथ देगा..
चल मेरे भाई पूरे ले लेना ”
“तुम नही समझ रहे ये तो इनका धन्धा है ”
“नही भाग्यवान धन्धा तो हम लोग करते हैं… ये लोग तो मेहनत करके अपना परिवार चलाते हैं… चल मेरे भाई बैठा ले बच्चे को ”
रिक्शे बाला बहुत सारा शुभासीष दे रहा था,
रजनी