मेरा गाँव
देखो आजकल बड़े ही इतराते हैं लोग,
जब जाकर शहर में बस जाते हैं लोग।
गाँव का नाम बताने में भी शर्माते हैं,
खुद को शहर वाला ही बताते हैं लोग।
गाँव की अपनी हवेली छोटी लगती है,
शहर में सौ गज में महल बनाते हैं लोग।
गाँव की आब ओ हवा रास नहीं आती,
धूल बहुत है कहकर नाक चढ़ाते हैं लोग।
पर शहर में तरसते हैं ताज़ी हवा के लिए,
इसीलिये पार्कों के चक्कर लगाते हैं लोग।
पड़ोसी ही पड़ोसी को नहीं जानता शहर में,
पर गाँव में खानदानों के नाम गिनाते हैं लोग।
इन शहरों का पेट भरते हैं ये गाँव आज भी,
फिर भी क्यों वापिस नहीं लौट आते हैं लोग।
देखो “सुलक्षणा” स्वर्ग सा सुंदर है अपना गाँव,
फिर क्यों शहर का मोह छोड़ नहीं पाते हैं लोग।
©® डॉ सुलक्षणा अहलावत