ग़ज़ल
कहीं धमकियां तो कहीं गालियाँ
चरम पर चली बेरहम गोलियाँ |
चुनावी लड़ाई की ये आँधियाँ
मिटाती शराफत की पाबंदियाँ |
सियासत में ईमान बिकता रहा
सरे आम लगती रही बोलियाँ |
जो जीता वही बन गया बादशाह
जो हारे सभी को लगी हिचकियाँ |
निभाता नहीं वायदा रहनुमा
उजाड़ा महल के लिए बस्तियाँ |
सफाई की बातें वे करते रहे
शहर बीच बहती रही नालियाँ |
© कालीपद ‘प्रसाद’