अज्ञानी
अधूरे ज्ञान पे ,
तुझे, अभिमान कैसा ?
अधंकार मिटाती है चादँनी ,
फिर,सूरज को खुदपे गुमान कैसा ?
बिक जाए कुछ टूकडो मे ,
लोगों का वो ! इमान कैसा ?
अज्ञानी जल जाते मेरे ज्ञान से,
‘रचना’ तेरे नाम का, ये असर कैसा ?
पत्थरों में, मिट्टी न रहे ।
वो ! इंसान ही कैसा ?
घमंड मे खो जाता सब ।
वक्त गुजरने पे, पशेमां कैसा ?
ऐसे ज्ञान से अज्ञानी ही अच्छे ।
अहंकार भरदें जो, वो ज्ञान कैसा ?
— रचना