हे भारत कर शत्रु क्षय !
हे भारत ! कर शत्रु क्षय !
शोषित शताब्दी सप्ताधिक
अनंतक ! अनाचार अत्याचार
दुर्दम्य अरि ! दंभ युक्त
वक्ष पर किए कितने वार !
कभी तुम
चक्षु विहीन ! शोणित रंजित !
बने थे अधिमुक्तिक !
चार बाँस , चौबीस गज
अंगुल अष्ट ! पर संधान !
कहाँ वह शान !
जयचंद ?
या चौहान !
अभी करना है ! कर निर्णय !
हे भारत ! कर शत्रु क्षय !
हे अध्वन्य ! चिर सहिष्णु!
लुंठित ! दलित ! छलित !
तू ! तेरे समृद्ध संस्कार !
रूदन करो कब तक ?
कब तक ?
तेरे !
कंधे स्वजन शव विक्षत !
विलगित माता का आँचल
अब केश लक्ष्य ! क्यों ? तनय !
हे भारत ! कर शत्रु क्षय !
पुनः प्रारंभ समर घोर
भीतर – बाहर चहुँ ओर
घर – घर से निकलेगा कंस
प्रत्यक्ष घोष !
जाग ! अब जाग !
फड़क उठें भुजाऐं
रंग बसंती चोला फिर
खेल रक्त फाग !
हो लहू में उबाल !
बन कराल !
हों आलोकित दसों दिशाऐं !
हुं हुं हुताशन
भक – भक ज्वाल !
ताण्डव ! त्रिनेत्र ! मृत्यूंजय !
हे भारत ! कर शत्रुक्षय !
— दामोदर कृष्ण भगत ‘किशन’