होली के दोहे
रंगों के सँग खेलती,एक नवल- सी आस !
मन में पलने लग गया,फिर नेहिल विश्वास !!
लगे गुलाबी ठंड पर,आतपमय जज़्बात !
प्रिये-मिलन के काल में,यादें सारी रात !!
कुंजन,क्यारिन खेलता,मोहक रूप बसंत !
अनुरागी की बात क्या,तोड़ रहे तप संत !!
बौराया -सा लग रहा,देखो तो मधुमास !
प्रीति-प्रणय के भाव का,है हर दिल में वास !!
अपनापन है पल्लवित,पुष्पित है अनुराग !
सभी ओर ही श्रव्य हैं,अंतर्मन के राग !!
भली लगे शीतल हवा,मौसम के प्रतिमान !
अधरों पर पलने लगा,ढाई आखर गान !!
करते मंगलकामना,आकर रंग-अबीर !
वे भी चंचल हो गये,जो थे नित गम्भीर !!
कायम रह पाये नहीं,अनुशासन के बंध !
अभिसारों ने रच दिये,नये-नये अनुबंध !!
फागुन की अठखेलियां,नयनों की है मार !
बदला-बदला लग रहा,देखो यह संसार !!
कदम-कदम से मिल रहे,हाथ गह रहे हाथ !
पर्वों को तो मिल रहा,धर्म,नीति का साथ !!
— प्रो. शरद नारायण खरे