ग़ज़ल
वो मांगता है पता आज हमसे साहिल का,
कभी रहा है सबब, जो हमारी मुश्किल का।
उठी हैं फिर से घटाएँ, घुमड़ रहा सावन,
ये किसकी याद में मौसम बदल गया दिल का।
न रौशनी, न कोई रंग है न आराई,
वो घर यही है, मोहब्बत में तेरे बिस्मिल का।
किसे गवाह बनाएँगे जब कि ज़ख्मों पर,
कोई निशान नहीं है हमारे कातिल का।
न इसकी उससे बुराई, न तंजो – फ़िक़रा है,
तुम्हें भी ‘होश’ सलीक़ा नहीं है महफिल का।
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आराई – श्रिंगार ; बिस्मिल – घायल
तंजो-फ़िक़रा – व्यंग्य और फिकरा कसना