गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

वो  मांगता  है  पता  आज  हमसे  साहिल का,
कभी  रहा है  सबब,  जो  हमारी  मुश्किल का।

उठी  हैं  फिर  से  घटाएँ,   घुमड़  रहा  सावन,
ये किसकी याद में मौसम बदल गया दिल का।

न   रौशनी,    न   कोई   रंग   है    न   आराई,
वो घर  यही है,  मोहब्बत में  तेरे बिस्मिल का।

किसे  गवाह   बनाएँगे   जब  कि  ज़ख्मों  पर,
कोई   निशान   नहीं    है   हमारे   कातिल का।

न इसकी  उससे  बुराई,  न  तंजो – फ़िक़रा है,
तुम्हें  भी  ‘होश’  सलीक़ा नहीं है  महफिल का।

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आराई – श्रिंगार ; बिस्मिल – घायल
तंजो-फ़िक़रा – व्यंग्य और फिकरा कसना

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।