दान किसे कहते हैं?
दान का शाब्दिक अर्थ है – ‘देने की क्रिया’. सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है. हिन्दू धर्म में दान की बहुत महिमा बतायी गयी है. आधुनिक सन्दर्भों में दान का अर्थ किसी जरूरतमन्द को सहायता के रूप में कुछ देना है. दान किसी वस्तु पर से अपना अधिकार समाप्त करके दूसरे का अधिकार स्थापित करना दान है. साथ ही यह आवश्यक है कि दान में दी हुई वस्तु के बदले में किसी प्रकार का विनिमय नहीं होना चाहिए. इस दान की पूर्ति तभी कही गई है जबकि दान में दी हुईं वस्तु के ऊपर पाने वाले का अधिकार स्थापित हो जाए. मान लिया जाए कि कोई वस्तु दान में दी गई किंतु उस वस्तु पर पानेवाले का अधिकार होने से पूर्व ही यदि वह वस्तु नष्ट हो गई तो वह दान नहीं कहा जा सकता. ऐसी परिस्थिति में यद्यपि दान देनेवाले को प्रत्यवाय नहीं लगता तथापि दाता को दान के फल की प्राप्ति भी नहीं हो सकती. दानशील मनुष्य वही होता है जो करुणावान हो, त्यागी हो और सत्कर्मी हो. एक अच्छे मानव में ही दानशीलता का गुण होता है.
जिसके हृदय में दया नहीं वह दानी कभी नहीं हो सकता और वह दान ऐसा हो जिसमें बदले में उपकार पाने की कोई भावना न हो. दाधीचि का दान, कर्ण का दान और राजा हरिश्चंद्र के दान ऐसे ही दान की श्रेणी में आते हैं. किए हुए कर्म का और आगे किए जाने वाले कर्म का विस्तार इसी संसार में और इसी जन्म में करना चाहिए. हमें इसी संसार में और इसी जन्म में जितना संभव हो सके, दान करना चाहिए. यदि हम ईश्वर की अनुभूति के अभिलाषी हैं तो हमें उसकी संतान की सहायता हरसंभव करनी चाहिए. ईश्वर का अंश हर जीव में मौजूद है. दूसरों की वेदना से व्यथित व्यक्ति ही सहृदयी हो सकता है. जो कोमल भावनाएं अपने अंतर्मन में रखता है, वह दैवीय गुणों से संपन्न है और जब दैवीय गुण अंतस में पनपते हैं तो अंत:करण स्वत: शुद्ध हो जाता है.
यह निर्विवाद सत्य है कि हम अगर दूसरों की सहायता करते हैं तो हमें शांति मिलती है. दानशीलता भी सत्य धर्म है. परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है. कहते हैं विद्यादान महादान यानी विद्या का दान सर्वोपरि है.यदि हम धन से वस्त्र का दान देंगे, तो वह बहुत बड़ा दान नहीं, किंतु यदि हम किसी दूसरे व्यक्ति को विद्या का दान देते हैं तो इससे उसका सारा जीवन सुखमय हो जाएगा.किसी के मन का अंधकार दूर कर ज्ञान का आलोक देना ब्रह्मदान है.