कसाईखाना
विशु के बापू, ज़रा सुनना तो…नानकी ने बान की झोल खाती हुई खटिया पर सोए बेटे विशाल को मैली-सी पुरानी चादर उढ़ाते हुए आवाज़ लगाई।
“हाँ कहो क्या बात है?” कोठरी के बाहर ही टाट के परदे की आड़ में नहाते हुए मंगलू ने पूछा।
-आज इन दो बूढ़ी हो चुकी बकरियों और एक बछड़े को कसाईखाने दे आओ…कहाँ सँभालूँ इन सबको, बाड़े में जगह कम पड़ने लगी है, हर साल दो से चार हो जाती हैं। इनका पेट भरने के लिए दुधारुओं का पेट काटूँ या फिर अपना। ना बाबा ना…यह अब नहीं होता, वैसे भी ये तीनों हमारे किसी काम के नहीं। चार बकरियाँ और उनके तीन बच्चे बहुत हैं अब! दिन भर विशु की देखभाल फिर घर के काम के साथ दूध दुहने, घरों में देने से लेकर इन सब जानवरों के सारे काम इतना थका देते हैं कि शरीर का पोर-पोर राहत के लिए गिड़गिड़ाने लगता है।
माँ की बात सुनते ही नन्हें विशु के कान खड़े हो गए। चादर हटाकर उठ बैठा और माँ से पूछा- अम्मा, यह कसाईखाना क्या होता है? ६ वर्षीय पुत्र की जिज्ञासावश पूछी हुई बात से घबराकर नानकी स्वयं को कोसने लगी कि उसने बेटे की उपस्थिति को नज़रअंदाज़ क्यों किया? कुछ सँभलकर बोली- बेटा यह एक बाजार होता है जहाँ बकरियाँ बेचने जाते हैं।
“लेकिन माँ, बकरियाँ बेचते क्यों हैं? मुझे तो इनके साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है”।
-बेटे जब वे हमारे किसी काम की नहीं रहतीं तो बेचना ही पड़ता है। हमारा बाड़ा छोटा है न अधिक हो जाने से उनको परेशानी होती है।
विशु को पूरी तरह संतुष्टि नहीं हुई फिर भी वह चादर तानकर सोने का उपक्रम करने लगा।
मंगलू नहाकर आ गया था, नानकी से बोला “आज काम पर जाने का समय हो चुका है, कल कुछ जल्दी घर से निकलूँगा तो लेता जाऊँगा”।
नानकी जब से ब्याहकर आई, अपने पति के साथ एक कमरे के कच्चे मकान में, जो कि पति को विरासत में मिला हुआ था, रहती थी। पति का काम शहर की इमारतों की रँगाई-पुताई का था। कुछ समय तक नानकी भी उसी के साथ काम पर जाया करती थी लेकिन गर्भवती होने के बाद उसका काम पर जाना बंद होता गया और वो घर में रहकर ही अपना समय
काटने लगी।
उन दिनों परिवार-नियोजन के लिए प्रचार-अभियान ज़ोरों पर था। गाँव के गरीब-अनपढ़ लोगों को, जो भगवान की देन मानकर एक के बाद एक बच्चों की लाइन कतार लगा देते थे, प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने घोषणा कर रखी थी कि एक या दो बच्चों के बाद नसबंदी करवाने वालों को सरकार की तरफ से सहयोग स्वरूप एक मोटी रकम दी जाएगी। मंगलू ने नसबंदी के बारे में पूरी जानकारी जुटाई और पुरुषों की नसबंदी महिलाओं की अपेक्षा आसान और सुरक्षित जानकर विशु के जन्म के बाद नसबंदी करवा ली।
सरकार से मिले हुए पैसे से पति-पत्नी ने आपसी मशविरा करके अच्छी नस्ल की चार दुधारू बकरियाँ और एक बकरा खरीद लिये। घर के पिछवाड़े काफी ज़मीन खाली थी, वहाँ उन्होंने बकरियों के लिए बाड़ा भी बना लिया। दुधमुँहे बच्चे के साथ काम पर जाना तो मुमकिन नहीं था अतः नानकी घर में ही मेहनत से बकरियों की सेवा करने लगी।
इससे विशु को भी घर का शुद्ध दूध मिलने लगा। शेष दूध शहर के धनी घरों में बेचने से आमदनी बढ़ने के साथ ही नानकी का समय भी अच्छी तरह कटने लगा। धीरे-धीरे उन्होंने घर को पक्का करवा लिया।
६ वर्ष का होने पर विशाल स्कूल जाने लगा वो पढ़ाई में होशियार और मेहनती भी था। हर साल अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होता रहा।समय गुज़रता रहा, युवा होते पुत्र को देखकर मंगलू खुशी से फूला न समाता। एक दिन उसने उसे दो बूढ़ी बकरियाँ बेचने कसाईखाने भेजा, सोचा कि कुछ काम सीख जाएगा तो उसे भी आराम मिलेगा। विशाल ने पहली बार कसाईखाना देखा था। वहाँ का वीभत्स दृश्य और बकरियों की कातर निगाहें देखते ही वो सब समझ गया और उल्टे पाँव लौट पड़ा। कुछ ही दूर जंगल में बकरियों को छोडकर वापस घर आ गया। पिता के पूछने पर उसने सब कुछ बता दिया और साफ कह दिया कि वो ऐसा काम कभी नहीं करेगा, जिसमें बेकार होते ही निरीह पशुओं को मौत के मुँह में धकेल दिया जाए। पढ़ लिखकर इतना कमाएगा कि माँ को भी यह काम नहीं करना पड़ेगा।
हाईस्कूल की परीक्षा में वो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ फलस्वरूप उसे छात्रवृत्ति के साथ उसी शहर के सरकारी कॉलेज में दाखिला मिल गया।
पढ़ाई के साथ ही वो प्रतियोगी परीक्षाएँ भी देता रहा। सफलता लगातार उसके कदम चूमने लगी थी। पढ़ाई पूरी होते ही मुंबई की एक अच्छी कंपनी में उसकी नौकरी भी लग गई और वो माँ-पिता को जल्दी ही साथ ले जाने की बात कहकर मुंबई चला गया। अब तो नानकी-मंगलू के दिन सोने के और रातें चाँदी की होने लगी थीं, बेटे का दूर रहना उन्हें अखरता लेकिन वे मुंबई जाने का सपना पालते हुए दिन बिताने लगे।
चार पाँच साल इसी तरह गुज़र गए। खान-पान और रहन सहन में भी फर्क आ गया। अब वे गरीबी रेखा से ऊपर आ गए थे लेकिन कहते हैं न कि सुख और दुख का चोली-दामन का साथ होता है… इस परिवार के भी अच्छे दिनों को न जाने किसकी नज़र लग गई कि देखते ही देखते उनकी खुशियों का किला अचानक ढह गया। एक दिन एक ऊँची इमारत की पुताई का कार्य करते हुए मंगलू पैर फिसलने से गिर गया और सिर फट जाने से उसकी वहीं मौत हो गई। नानकी का तो जैसे संसार ही उजड़ गया। सिर पटक-पटक कर खूब रोई लेकिन अब क्या होना था। विशाल को पड़ोसियों ने खबर कर दी। वो बदहवास होकर तुरंत छुट्टी लेकर घर आ गया। इमारत के ठेकेदार शोक प्रकट करने के साथ ही एक मोटी रकम का चेक हरजाने के तौर पर विशाल को सौंपकर चले गए।
कुछ दिन बाद माँ कुछ सामान्य हुई तो विशाल ने उसे मुंबई चलने को कहा। वो भला अब वहाँ किसके सहारे रहती, बकरियों सहित घर बेचकर वे मुंबई आ गए। यहाँ आकर विशाल ने सारी जमा पूँजी लगाकर एक छोटा सा दो कमरे, बैठक और रसोई वाला फ्लैट खरीद लिया। नानकी इस नई दुनिया में मन लगाने का प्रयास करने लगी लेकिन विशाल के ऑफिस चले जाने के बाद अकेलापन उसे बेहद डरावना लगता। समय काटने के लिए घर के सारे काम वो स्वयं करती फिर भी दिन पहाड़ जैसे लगते। अब उसने विशाल से शादी कर लेने की बात की। सुनकर वो मुस्कुरा दिया।
दूसरे ही दिन हो वो अपनी सहकर्मी प्रतिभा को साथ ले आया और माँ से बिना किसी भूमिका के कहा- “माँ हम दोनों एक दूसरे को प्यार करते हैं, मैं और प्रतिभा एक ही ऑफिस में कार्यरत हैं। हमें आपकी सहमति और आशीर्वाद चाहिए”।
प्रतिभा ने झट से झुककर नानकी के पाँव छू लिए। नानकी उसका सौन्दर्य और विनम्र स्वभाव देखकर मुग्ध हो गई। उसके मन की इच्छा इतनी जल्दी पूरी हो जाएगी, यह उसने सोचा भी न था। उसने तुरंत हामी भर दी। प्रतिभा माँ-पिता की इकलौती संतान थी वह अपने माँ-पिता से विशाल को मिलवा चुकी थी। उन्हें भी इस शादी से कोई ऐतराज न था, सो बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने अपने परिजनों की उपस्थिति में कोर्ट-मैरिज कर ली।
प्रतिभा का व्यवहार अपनी सास के प्रति अपनत्व से भरा और नम्रतापूर्ण था। नानकी भी उसे हाथों पर रखती और नौकरी के अलावा कोई काम नहीं करने देती थी। प्रतिभा ने उसके मना करने के बावजूद ऊपर के कार्यों के लिए एक कामवाली लगा दी, सिर्फ खाना बनाना ही नानकी के जिम्मे था।
सुख के दिन तो पंख लगाकर उड़ते जाते हैं, सो इनका समय भी उड़ते उड़ते कब ५ साल आगे निकल गया, पता ही न चला। अब प्रतिभा की गोद में एक प्यारा सा बेटा आ गया था, जिसका नाम प्रखर रखा गया। डिलीवरी के लिए मिली छुट्टी पूरी होते ही प्रतिभा ने शिशु को नानकी की गोद में डाल दिया। नानकी तो जैसे निहाल हो उठी। उसे मंगलू की बहुत याद आती। सोचती- आज वो होता तो कितना खुश होता! मुन्ने को वो पल भर भी खुद से दूर न करती, रात को भी अपने साथ ही सुलाती।
उड़ते-उड़ते समय १० साल और आगे निकल गया, लेकिन अब नानकी वृद्ध और अशक्त हो चली थी, ऊपर से दमे की बीमारी ने उसे कमरे तक सीमित कर दिया था। उसे लगता जैसे समय के पंख भी थक चुके थे, गति मंद होने लगी थी। प्रतिभा प्रखर को अब माँ जी से दूर रखना चाहती थी अतः काफी विचार करके विशाल की सहमति से उसने नौकरी छोड़ दी, लेकिन उसे घर में बीमार सास की उपस्थिति भी अखरने लगी थी।
एक दिन बातों बातों में उसने विशाल से कहा-
“विशाल, प्रखर अब १० वर्ष का हो चुका है, उसे अब अलग कमरे की आवश्यकता है। माँ जी दमे की परेशानी से दिन रात खाँसती रहती हैं, ऐसे में प्रखर के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
-तुम चिंता मत करो प्रतिभा, हम प्रखर को मुंबई के एक बढ़िया हॉस्टल में शिफ्ट कर देंगे और माँ-जी की देखरेख के लिए २४ घंटे एक सेविका को लगा देंगे।
“यह तुम क्या कह रहे हो विशाल! प्रखर अभी बहुत छोटा है, मैं उसे खुद से दूर बिलकुल नहीं करूँगी”।
-ठीक है, हम हॉल में ही प्रखर का बेड और स्टडी टेबल लगा देंगे।
“लेकिन मेहमान और मित्र वर्ग का क्या होगा? क्या मैं यों ही घुटती रहूँगी”?
-कुछ समय सब्र करना ही होगा, हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है प्रतिभा…
“है क्यों नहीं विशाल, मैं अब इस बीमार खाने में एक दिन भी नहीं रह सकती। उचित होगा कि हम माँ जी को एक वृद्धाश्रम में भर्ती कर दें”।
सुनते ही विशाल को जैसे करंट का झटका लगा हो, उसकी आँखों से चिंगारियाँ फूटने लगीं। क्षण भर में समय ने उसे उस खाई की तरफ धकेल दिया जिसे पार करके उसने सफलता के शिखर को छुआ था। उसकी आँखों के सामने २० साल पहले का बचपन का नज़ारा कौंध गया। माँ-पिता का उसकी अच्छी शिक्षा और परवरिश के लिए संघर्ष, स्थानाभाव से वृद्ध बकरियों को कसाई खाने भेजना, बकरियों की कातर निगाहें, और कसाईखाने का वीभत्स नज़ारा चलचित्र की भांति जेहन से गुजरने लगा। लेकिन आज माँ!… उसकी रूह काँप उठी, और ज़ोर से चीख पड़ा- “नहीं…….मैं अपनी माँ को कसाईखाने नहीं भेज सकता….. तुम तलाक ले सकती हो…
-कल्पना रामानी