संस्मरण

संस्मरण – जंगल में मंगल

एक उनींदी दोपहर में डायरी के पन्नों से एकाएक मेरा बचपन यादों की खिड़की से झाँककर मुस्कुराता है, और मैं भाव-विभोर हो एक आर्दृ हंसी हंसने लगती हूँ। बचपन के इस कोलाहल में झरनों का संगीत, और रसीले आमों की मीठी सुगन्ध मुझे बैचेन करने लगी है। आज की इस तेज़ रफ़्तार में प्रगतिशीलता और तकनीक के विमानों में सवार हम एक अंतहीन अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं, सबसे आगे खूब आगे निकलने के लिए गिरते पड़ते बस भागे ही चले जा रहे।
      जो पीछे छूट गया उसे भुला देने के छोड़ देने के सिवा कोई चारा नही हमारे पास, पर आज मैं अपनी स्मृतियों को पीछे –खूब पीछे अपने बचपन की ओर मोड़ देना चाहती हूँ, वो बुला रहा है मुझे हिला-हिला कर, झंझोड़-झंझोड़ कर और मैं अपनी कल्पनाओं के हिंडोले में सवार हूँ जैसे कि वो एक टाइम मशीन हो, और मुझे ले चली हो मेरी मातृभूमि की गोद में, मैं लेटी हूँ दूब के एक हरे बिछौने पर, आहा कितनी मुलायम घास जो ओस की बूंदों से ऐसे चमक रही है, जैसे किसी ने उस पर चमकनी छींट दी हो। ये मेरे  स्कूल का बगीचा है, क्यारियों में गेंदा, गुलाब, सेवंती के फूलों पर बहार है। गुड़हल की लाल लाल सुंदर चेनें ऐसी लटक रही है जैसे इनमें से अब्बी के अब्बी रस टपक पड़ेगा। स्कूल के गेट से अंदर आते ही दायीं तरफ है हमारा ये बगीचा जिसके प्रवेश-स्थल पे ही माली काका ने एक क्यारी ऐसी बनाई है, जिसकी पहली पंक्ति में ही ऊगे छोटे छोटे जामुनी फूलों में तराशा है। हमारे स्कूल का नाम, शासकीय उच्चतर माध्यमिक कस्तूरबा शाला पचमढ़ी और उसके नीचे लिखा है, जय हिन्द और इस जय हिन्द को सजाया है केसरिया सफ़ेद और हरी डंडियों से। हम सुबह ज़ल्दी ही स्कूल पहुँच जाते जब हमारे माली काका चाय पीने गए होते थे, और जी भरकर ऊछलकूद करते नरम घास पर, फूलों को छूते, कलियों को सहलाते पर तोड़ते कभी नहीं थे, क्योंकि इससे भी जुड़ा एक किस्सा था हमारे माली काका फूलों से बड़ा प्यार करते थे और हमें असेंबली में रोज़ प्रार्थना गाने के बाद शपथ दिलवाई जाती थी, कि कोई भी बच्चा फूलों को नही तोड़ेगा, पर एक दिन हम एक उजली सुबह से झूठ बोलकर कि आज स्कूल ज़ल्दी ही जाना है, माली काका को बुखार है; बगीचे में पानी देना है, –मैडम ने चार बच्चों की ड्यूटी लगाई है।
माँ ने आश्चर्य से देखा—और हमने नज़रें चुरा लीं, कहीं हमारा झूठ आँखों से टपक न पड़े और ज़ल्दी से बैग उठाये दौड़ लगाकर सीधे स्कूल। माली काका पहुंचे नही थे, हमने अपनी अपनी पसन्द के फूल तोड़कर बैग में रख लिए, और जब प्रार्थना स्थल से कक्षा में आये तो हमारे बैग देसी गुलाबों से महक रहे थे। हम भूल ही गए थे हमने फूलों के साथ-साथ खुशबुएँ भी चुराने की भूल कर ली थी। थोड़ी देर बाद ही वो खुशबू पूरी कक्षा में फ़ैल गई थी, और हमें तो पकड़े ही जाना था। हमें तत्काल ऑफिस में बुलवाया गया, वहाँ खड़े माली काका को देखकर हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी—दस उठक बैठक लगवाकर चेतावनी देकर हमें तो छोड़ दिया गया, पर माली काका से हमने कई दिनों तक नज़रें नहीं मिलाई थीं।
    उन दिनों कोई भी बगीचा उजाड़ नहीं हुआ करता था, हमारे स्कूल के माली काका हों या स्कूल की हमारी साफ-सफाई करने वाली बाई, छुट्टी की और स्कूल खुलने की घण्टी बजाने वाले भैया सब अपना काम ईमानदारी और मेहनत से करते थे। स्कूल कितना साफ-सुथरा और चमचमाता रहता था, मेरी आँखों में कितने सारे नज़ारे हैं, पर सब कितने साफ़-झक्क, कहीं नहीं कोई कलुष। हाँ मन की बात सब मुंह पर कह दिया करते थे, कोई ढोंग नहीं करता था आदर्शवादी होने का। अधिकांश लोग संतुलित ही होते थे। सबका मनुष्यता में विश्वास हुआ करता था।

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर
पाछे-पाछे हरि फिरें, कहत कबीर कबीर

सबका यही मानना था, मनुष्यता से प्रेम करो। ईश्वर खुद तुमसे प्रेम करेगा। अरे मेरे बचपन में ये कैसी घुसपैठ की माली काका के बहाने उन दिनों के  भोले-भाले वक़्त ने, मैं तो उन हरी डंडियों की बात कर रही थी, जिससे हमारे बगीचे का जय-हिन्द सजा था। इसी के पास थोड़ा हटकर था हमारा प्रार्थना-स्थल जिसे सजाया था जोगी भैया ने। चलिए जोगी भैया का परिचय भी करवा दूं आपसे। वे हमारे पी टी मास्टर थे जिन्हें हम सब जोगी भैया ही कहते थे। अब क्यों और कैसे उनका ये नाम पड़ा ये तो मुझे याद नही, पर उनसे शुरू में तो डर लगा था अरे हाँ  हमारे स्कूल की ही एक लड़की साधना ने जिसका घर का नाम कूका था और वो कूका बुलाये जाने से चिढ़ती थी, उसी ने बताया था कि जोगी भैया को उनके दोस्त “ज़िन्दा भूत” कहते थे। जब उसने ये बात बताई तो हम सबने उससे पूछा कि क्यों, और तुम्हे कैसे पता? तब उसी ने कहा कि जोगी भैया उसके पीछे वाली गली में एक कमरा लेकर किराये से रहते है, और वो जब बाहर खेलने जाती है तो जोगी भैया के दोस्त जो अक्सर उनके घर के बहार चबूतरे पर इकट्ठे होकर ताश खेलते हैं और दहला पकड़ में हार जाते हैं—तो बेचारे जोगी भैया को कहते है—‘इस ज़िन्दा भूत से जीतना मुश्किल है। हम आश्चर्य से कूका का मुंह देखते कि इसमें ज़िन्दा भूत कहने का क्या मतलब वो हमारा ज्ञान बढ़ाती, -अरे बुद्धुओ—-तुमने देखा नही उनका रंग कितना दबा हुआ है; और हमे  लगा हम सच में बुद्धू थे।
कूका ने हमे काले गोरे का भेद बताया–और एक दिन मैंने जोगी भैया को पीछे से ज़िन्दा भूत कह दिया था। पर बाद में जब घर में माँ को मेरी सहेलियों ने ये बात बताई थी और जहाँ तक मुझे याद है वो पहली बार था जब माँ ने मुझे डांटा था और दीवाल की तरफ मुँह करके पंद्रह मिनिट खड़ा करके रखा था।
इसके बाद मैंने जोगी भैया से माफ़ी मांग ली थी, हाँ तो मैं बता रही थी कि जोगी भैया ने चूने की लकीरों से हमारे वर्ग विभाजन वहाँ करवा रखे थे, एक कक्षा के बाद दूसरी कक्षा के बच्चे आगे, फिर दो, फिर तीन, और चार, और सबसे अन्त में बड़ी कक्षा के बच्चे और ये सोच कर तो मैं अवाक रह जाती हूँ, कि जोगी भैया ने खेल खेल में ही हमारी जिम्मेदारियां आपस में बाँट दीं थीं। हम जाने कब अपने से छोटों को सम्हालने में खुद इतने अनुशासित हो गए कि कोई काम कभी मुश्किल लगा ही नहीं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का वो निबन्ध तो बाद में बड़ी कक्षाओं में पढ़ा, किन्तु ज़िन्दगी की इस पाठशाला में कितने सहज सरल स्वाभाविक रूप से सीख गए, वाणी में विनम्रता, छोटों से स्नेह, बड़ों के प्रति सम्मान, हमउम्र से प्रेम ये विचारों में कब समाविष्ट हो गया जान ही नहीं सके।

सारी तारीफ़ उस हुनर की है।
मीर, ग़ालिब, ज़फर, ज़िगर की है।।
मेरी ग़ज़लों में मेरा कुछ भी नही।
फ़िक़्र सारी इधर उधर की है।।

इन्ही दिनों संभाग स्तर की शैक्षणिक गतिविधियाँ हमारे पचमढ़ी में ही आयोजित की गईं थी। जिनमें मैंने तात्कालिक निबन्ध प्रतियोगिता में दूसरा स्थान प्राप्त किया था, और विषय था मेरे शिक्षक, मैंने अपनी प्रथम शिक्षक अपनी माँ  शांतिदेवी को बताया था, जिन्होंने मुझे स्कूल में प्रवेश दिलाने से पहले ही अक्षर ज्ञान, अंकों का ज्ञान, कुछ सूक्तियाँ, श्लोक, पक्षियों जानवरों फलों फूलों सबके नाम सिखा दिए थे, और ये उन दिनों की बात है जब आमतौर पर माएं न इतना समझती थीं न जानती थीं। फिर मैंने नाम लिया था अपनी एक शिक्षक सुधा सूबेदार का जो हमें बहुत अच्छे से पढ़ाती थीं और बहुत प्रेम करती थीं। उनकी जो बात मुझे सबसे अच्छी लगती थी, वो कहती थीं कि मेरा एक ही बेटा है पर मैं उसे भारतीय सेना में भेजना चाहती हूँ। उनका वो रूप मेरे लिए गरिमामयी शिक्षक का ही नही आत्मगौरव से लबालब भरी एक स्त्री का भी था।
देश पर न्यौछावर होने वाले वीरों की शौर्य-गाथाएँ पढ़-पढ़कर मैं अपनी उस छोटी सी उम्र में भी देश प्रेम की भावना से लबरेज़ रहती थी, और मन ही मन भगतसिंह से प्रेम करने लगी थी। मैं जानती थी कि वो शहीदे-आज़म भगतसिंह थे, पर मैं क्या करती उनसे प्रेम न करना मेरे वश में नहीं था।

मेरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए।
तेरा वज़ूद है लाज़िम, मेरी ग़ज़ल के लिए

आज बरबस क़तील शिफ़ाई का यह शेर उनके लिए ज़ुबान पर आ गया। और ये प्रेम आज भी मुझमें ज़िन्दा है। मेरी सहेलियाँ मुझसे अक़्सर कहती थीं कि मैं बहुत भावुक हूँ और मैं उनसे कहती थी कि मेरे भावुक होने में बुराई क्या है भला ? खैर। हाँ, तो मैं कह रही थी मेरे स्कूल की उस संभागीय स्तर की प्रतिस्पर्धाओं की, तो मैंने उसमें एक देशभक्ति कविता गायन  में भी प्रथम पुरस्कार जीता था, और मेरे स्कूल के लिए वो जश्न का दिन था। जब तक मैं उस स्कूल में पढ़ी मेरे सारे शिक्षक मुझसे बहुत प्यार करते थे। उस साधारण से स्कूल की शिक्षा बड़ी असाधारण थी। जो मेरे जीवन के हर पहलू में मेरे बहुत काम आई।
पचमढ़ी की हरीभरी वादियों में मेरा छोटा सा स्कूल एक नरम गरम दुशाला था, जिसकी शिक्षा ओढ़कर हम सारे विद्यार्थियों ने उम्र के हर कठिन सबक को सहजता से समझा और बिना नानुकर हल किया। वहाँ के शफ्फाक पानी के सदाबहार झरने हममें आज भी नमी बरकरार रखते हैं। हरे सीधे खड़े पहाड़, जंगली गुदगुदे ख़रगोश जिन्हें हम भींच लिया करते थे, नटखट बन्दरों की टोलियाँ जो हाथ से आम छीन कर भाग जाया करती थीं।
वे मीलों लम्बे पथरीले रास्ते जो धूल रहित थे, और उनके दोनों तरफ घने छतनार वृक्षों की छाया में लम्बी दूरियाँ जो जैसे पलक झपकते ही पूरी हो जाती थीं, और हम दौड़ कर बीफॉल, महादेव, जटाशंकर जैसी खूबसूरत प्राकृतिक जगहों पर पहुँच जाया करते थे। वो प्राकृतिक दृश्यावली, वो सहज सरल निश्छल निष्पाप जीवन मुझसे मीलों दूर और सालों पीछे छूट गया, लगता है उस हिंडोले से नीचे उतार दिया हो टाइम मशीन ने मुझे, पर अभी अलविदा नही कहूँगी, फिर आऊँगी बार-बार आऊँगी, हज़ार बार आऊँगी, लौटूंगी अपने बचपन में तब तक, जब तक कि हर साँस में उसे समा न लूँ।
सबसे मुश्किल है अपने अंदर के बच्चे को ताउम्र ज़िन्दा रखना, पर हिसाबी किताबी ज़िन्दगी से अगर कोई कुछ बचा पाता है, तो वो है बचपन चाहे वो किसी भी रूप में लौटे, हर बार चकित कर देता है, खुशियों से पूर देता है।

अपना ग़म लेके कहीं दूर न जाया जाये।
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाये।
मंदिर-मस्ज़िद हैं बहुत दूर, चलो यूँ कर लें।
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये।।

आरती तिवारी