आठवीं अनुसूची है या भारतीय रेल का अनारक्षित डिब्बा
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में अभी तक 22 भाषाओं को शामिल किया गया है. इस सूची में 35 और भाषाओं को शामिल करने का प्रस्ताव है. भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी, ब्रजभाषा, हरियाणवी, छतीसगढ़ी आदि लोकभाषाएँ प्रतीक्षा सूची में हैं. अभी तक हिंदी को ही उसका संविधान प्रदत्त अधिकार नहीं मिला और आठवीं अनुसूची में उपभाषाओं / बोलियों को शामिल करने की लड़ाई आरम्भ हो गई. जैसे इस अनुसूची में शामिल हो जाने मात्र से ये भाषाएँ समृद्धि के शिखर को स्पर्श कर लेंगी. यह तो मात्र सरकारी झुनझुना है, बजाते रहो. जब 70 वर्षों में हिंदी राजभाषा होते हुए भी अंग्रेजी के सामने दोयम दर्जे की भाषा बनी रही तो अष्टम अनुसूची में शामिल हो जाने मात्र से कौन – सा जन्नत नसीब हो जाएगा. आठवीं अनुसूची अब तो राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति का हथियार बनती जा रही है. हिंदी भाषी प्रदेशों के कुछ नेता और संकुचित मानसिकतावाले बौने कद के साहित्यकार अष्टम अनुसूची में अपना भविष्य तलाश रहे हैं. यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भाषा का विकास आठवीं अनुसूची की बैशाखी के बिना नहीं हो सकता है !! जो हिंदी भाषी समाज अपने लेखकों- कवियों को कोई महत्व नहीं देता वह बोलियों – उपभाषाओं के विकास के लिए क्यों चिंतित होने लगा. भारत में कोई सुचिंतित भाषा नीति है और जो नीति है उसका अनुपालन नहीं किया जाता. हिंदीतर क्षेत्र को तो छोडिए, हिंदी भाषी राज्यों में स्थित केंद्र सरकार के कार्यालयों में ही हिंदी में कामकाज नहीं होता है. हिंदी तो अभी तक केवल सजावटी भाषा ही बनी हुई है. हर साल सितम्बर महीने में अथवा संसदीय समिति के निरीक्षण के समय इस सजावटी वस्तु को झाड़- पोंछकर बक्से से निकाला जाता है और श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद पुनः बक्से में बंद कर दिया जाता है.
हिंदी तो अभी तक केवल श्रद्धा की भाषा बनी हुई है, कामकाज की भाषा नहीं बन पायी है. हिंदी श्रद्धेय भाषा ही बनी हुई है और जाहिर है कि श्रद्धेय को श्रद्धांजलि ही अर्पित की जा सकती है. अष्टम अनुसूची के नाम पर हिंदी भाषी क्षेत्र में खूब राजनीति हो रही है. अष्टम अनुसूची न हुई, गोया भारतीय रेल का अनारक्षित डिब्बा हो गया जिसमे प्रवेश की कोई सीमा नहीं है. किन – किन भाषाओँ को इस भारतीय रेल के अनारक्षित डिब्बे में प्रवेश देंगे ? हिंदीभाषी क्षेत्र में ही चार दर्जन लोकभाषाएँ हैं. केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा ने हिंदी भाषी क्षेत्र में 48 लोकभाषाओँ की पहचान की है. भोजपुरी, छतीसगढ़ी,ब्रजभाषा, बुन्देली, निमाड़ी, छतीसगढ़ी, हरियाणवी, गढ़वाली, कुमाऊँनी, मगही, मालवी, मारवाड़ी, राजस्थानी आदि कितनी भाषाओँ को इस अनुसूची में सम्मिलित कर संतोष मिलेगा. जब इन भाषाओँ को शामिल करेंगे तो मिजो, लिम्बू, काकबराक,लेपचा, भूटिया को क्यों नहीं. जब इस अनुसूची में राजस्थानी, मालवी, गढ़वाली, निमाड़ी को सम्मिलित करेंगे तो आओ,राभा, मीरी, कार्बी, नागामीज को क्यों नहीं.
यह आठवीं अनुसूची का सफ़र कहाँ जाकर विराम लेगा. क्या डेढ़ हजार भारतीय भाषाओँ को इसमें शामिल किया जाएगा ?अवधी भाषा ने तुलसीदास जैसा महाकवि हम सबको दिया तो अवधी को इस अनुसूची से बहार क्यों रखा जाएगा. नागालैंड की चाकेसांग, अंगामी, जेलियांग, संगतम, सेमा, लोथा, खेमुंगन, रेंगमा, कोन्यक इत्यादि भाषाएँ, त्रिपुरा की नोआतिया,जमातिया, चकमा, हालाम, मग, कुकी, लुशाई इत्यादि भाषाएँ, मणिपुर की तंगखुल, भार, पाइते, थडोऊ (कुकी), माओ, मेघालय की खासी, जयंतिया, गारो भाषाएँ और अरुणाचल की आदी, न्यिशि, आपातानी, मीजी, नोक्ते, वांचो, शेरदुक्पेन, तांग्सा,तागिन, हिलमीरी, मोंपा, सिंहफो, खाम्ती, मिश्मी, आका, खंबा, मिसिंग, देवरी इत्यादि भाषाओ ने कौन – सा अपराध किया है कि इनको आठवीं अनुसूची से बाहर रखा जाएगा. अब आठवीं अनुसूची पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है अन्यथा इस अनुसूची के नाम पर भाषाओँ को शामिल करने का अंतहीन सिलसिला चलता ही रहेगा.
— वीरेंद्र परमार