“कुदरत ने सिंगार सजाया”
बौराई गेहूँ की काया,
फिर से अपने खेत में।
सरसों ने पीताम्बर पाया,
फिर से अपने खेत में।।
हरे-भरे हैं खेत-बाग-वन,
पौधों पर छाया है यौवन,
झड़बेरी ने “रूप” दिखाया,
फिर से अपने खेत में।।
नये पात पेड़ों पर आये,
टेसू ने भी फूल खिलाये,
भँवरा गुन-गुन करता आया,
फिर से अपने खेत में।।
धानी-धानी सजी धरा है,
माटी का कण-कण निखरा है,
मोहक रूप बसन्ती छाया,
फिर से अपने खेत में।।
पर्वत कितना अमल-धवल है,
गंगा की धारा निर्मल है,
कुदरत ने सिंगार सजाया,
फिर से अपने खेत में।।
—
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)