कविता: आत्मसमर्पण
जगमग जगमग दीप जल उठे देवलोक से पुष्प बरसते
अभिनन्दन की इस बेला में दर्शन को हैं प्राण तरसते
वंदन कर मैं चरण पखारूँ दिव्य माल का अर्पण कर दूँ
हे मोहन हे नटवर नागर आओ आत्मसमर्पण कर दूँ
भवभय भंजन तुम कहलाते निर्भय अभय तुम्ही से पाते
कृत कृत हो कर सेवा करते अधर तुम्हारे गीत सुहाते
नयन तुम्हारी एक मूर्ती, पल पल जिसको नाथ निहारूं
क्रन्दन मेरा अब हरि सुनलो, हाथ जोड़कर तुम्हे पुकारूं
दुःख दरज सब भक्ति सिन्धु में नाथ मेरे सब तर्पण कर दूँ
हे मोहन हे नटवर नागर आओ आत्मसमर्पण कर दूँ
यह मादक सुरभित ध्वनी ऐसी बंसी हृदय समाती है
कानो में कुंडल शोभित हैं अधरों पर तुम्हे सुहाती है
जीवन के मर्मज्ञ सभी, अब ओर तुम्हारी जाते हैं
जीवन का आदि तुममें और अंत तुम्ही में पाते है
इन नयनों को मिले दरस तो जीवन को मैं दर्पण कर दूँ
हे मोहन हे नटवर नागर आओ आत्मसमर्पण कर दूँ
यह मेघों से झरता पानी, कोकिल बोल रही मधुबानी
शशि की दमक शीतला चंचल, शाम रात और भोर सुहानी
पनघट पर बैठी है राधा जिसको एक दरस की आशा
मन व्याकुल और ह्रदय अकेला सूखा जीवन का घट प्यासा
सुधि मिल जाए एक बार जो प्लावित अपना क्षण क्षण कर दूँ
हे मोहन हे नटवर नागर आओ आत्मसमर्पण कर दूँ
वंदन कर मैं चरण पखारूँ दिव्य माल का अर्पण कर दूँ
हे मोहन हे नटवर नागर आओ आत्मसमर्पण कर दूँ
सौरभ कुमार दुबे