कविता वैचारिक मुक्ति की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है
अंधियारी रातों में आजकल कविता देर रात तक जागती है,
जुगनू के प्रकाश सी चंचल शब्दो की माला तरंगित हो कागज पर भागती है,
कविता दुखित है, पीड़ित है, हृदय से विकल है।
शोषित है, क्रंदित है, रुदित है विफल है।।
सहसा पीड़ा उमड़ उमड़ उठती है,
मन कोने के तट घुमड़ घुमड़ उठती है,
कविता विद्वेग के विभीषक समय में चकित है,
उचित अनुचित के नित में उलझा सा चित है।।
कुंठा के बीजो ने द्वेष के ही वृक्ष बोये हैं,
शब्द शब्द जिस घृत को पी अबतक ना सोये हैं,
कविता व्यथित है संदेहित है अपनों से हारी है,
भावों के घाट में संवेदना तिल तिलकर मारी है।
पीड़ा के अँधेरे में घनघोर घनन आंधी है,
माया के फेरे से शब्दजाल बाँधी है,
कविता वैचारिक मुक्ति की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है,
चेतना के सुरों में स्पंदित यह विषयों की मुक्ति है।।
किन्तु घोर तम में, विकृति के घनन में,
काटों सी चुभती है कविता बदन में।
आज द्रोह जागा है, क्रांति गर्भधारी है,
शब्दो की विपसना में छंद की बीमारी है,
इसीलिए कविता आजकल एक नया राग अलापती है,
अंधियारी रातों में आजकल कविता देर रात तक जागती है।।
—सौरभ कुमार दुबे