“गया पुरातन भूल”
बिछा रहा इंसान खुद, पथ में अपने शूल।
नूतनता के फेर में, गया पुरातन भूल।।
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हंस समझकर स्वयं को, उड़ते नभ में काग।
नीति-रीति को भूलकर, गाते भौंडे राग।।
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नवयुग में इंसान का, दूषित हुआ दिमाग।
रंगों के तेजाब से, खेल रहे हैं फाग।।
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कैसा रीत-रिवाज है, गिरवीं धरा जमीर।
आया पश्चिम से यहाँ, घातक आज समीर।।
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चिड़ियों को अब लीलते, घात लगाकर बाज।
बहू-बेटियों की यहाँ, खतरे में है लाज।।
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कदम-कदम पर भेड़िये, बिछा रहे हैं जाल।
सुरा-सुन्दरी देखकर, सिक्के रहे उछाल।।
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नैतिकता की आड़ ले, करें अनैतिक काम।
राम-कृष्ण के देश में, मचा हुआ कुहराम।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)