कविता : फिर मैं क्या करूँ
फिर मैं क्या करूँ,
कोई मुझे बतलाये मैं क्या करूँ ?
मैं लखनऊ के अपने उन अग्रज जैसा
तेजस्वी तो नही,
जो समस्याओं, मुसीबतो से सीधे दो दो हाथ करते हैं,
और छलाँग लगा कर आगे बढ जाते हैं.
मैं अपने उन मित्र जैसा भी तो नही,
जो निश्चिंत, बेफिक्र हो,
जिन्दगी अपने रंग मे जीते हैं,
दिक्कतो, परेशानियों को,
मानो, धूयें संग उडाते हैं.
ईश्वर ने मुझे मेरे उस भाई जैसा
शांत भी तो नही बनाया,
जो अंदर ही अंदर बुझने देते हैं,
भावों को अपने अंतरमन में.
तो फिर मै क्या करूँ— —
हे ईश्वर काश,
मुझे उन साथी जैसा ही बनाया होता,
जो दौड़ते, भागते पाये जाते हैं,
हर किसी के साथ.
और जिनको कई लोग कहने लगे हैं,
दीनबंधू, दीनानाथ.
फिर मै क्या —- —
हाँ, मैं बनारस के उन आत्मीय जैसा साहित्यकार भी तो नही,
जो पीडा और विषाद मे भी,
लिख देते हैं अनेक पुस्तकें,
रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथो पर.
न ही उन जैसी प्रतिभा है मुझमे,
जिसने अपनी शारीरिक अक्षमता को भी,
बदल दिया अतिरिक्त क्षमता में,
अपनी दिव्यांगता को बना लिया,
ईश्वर का वरदान.
मंदिर मे बैठे उस भक्त जैसा समर्पण,
कहाँ है मेरे अंदर,
जो सब कुछ परमेश्वर पर छोड,
लीन रहता है साधना मे.
और उसी मे खोजता है, मुक्ति का मार्ग.
तो फिर मै क्या करु,
कोई बतलाये —- —
क्या मैं उनको उनके हाल पर छोड दूँ,
जो सारी रात बिता देती हैं,
सिरहाने बैठ कर,
मेरी थोडी सी हारी बीमारी मे,
रास्ता देखती हैं अपलक नेत्रों से,
जब तक घर नही आता.
तो फिर मै — –,
कोई बतलाये — —
हार कर मैने अपने मनोभाव उन्हे ही सुना डाले.
मेरी बातो को समझ,
उसने अपना दुर्बल हाथ मेरी ओर बढाया,
और कहने लगी–
क्यों नही, तुम कर सकते हो,
बहुत कुछ कर सकते हो.
देखो अपने अगल बगल मे,
थोडा नीचे झुककर देखो,
पाओगे कितने गरीब, साधन हीन,
जो असह्य दुख उठाते हैं,
उनके मैले, कुचैले बच्चे,
मुसकराने के पहले ही,
साथ छोड जाते हैं.
उनके आगे तो हमारा दुख कुछ भी नही.
उनके लिये कुछ सँवेदना दिखाओ,
कुछ सहारा दो,अपना हाथ बढाओ.
कुछ नही तो कम से कम,
दो मीठे बोल ही बोल आओ.
तब मन मे आस जगने लगेगी,
जिन्दगी हसीन लगने लगेगी.
वैसे भी सुख दुख तो आना जाना है,
क्योंकि-
दिन के बाद रात और,
रात के बाद दिन होता है.
यही प्रकृति का नियम है,
यही प्रकृति का नियम है.
— गोविन्द राम अग्रवाल