गज़ल
अँधेरा जब होता है और साए बिछड़ने लगते हैं,
ज़ेहन में यादों के कुछ ताबूत सरकने लगते हैं,
ना जुल्फों की छाँव मिले, ना इश्क की बरसातें हों,
तेज़ गमों की धूप में तब अरमान झुलसने लगते हैं,
नाम वफा का ले कोई या बात इश्क की होती हो,
करके तुमको याद हमारे अश्क निकलने लगते हैं,
कैसे रोकूँ मैं खुद को और कितना मैं बर्दाश्त करूँ,
गैरों से तुम मिलते हो जी-जान सुलगने लगते हैं,
मरहम रखने से मेरे ज़ख्म और उभर कर आते हैं,
जब लोग दिलासे देते हैं तो दर्द बिलखने लगते हैं,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।