ग़ज़ल : दर्पण
कुछ दिनों से लगता है जैसे मैं नहीं रही
खो गयी हूँ भीड़ भरे रास्तों पर फिर कहीं
न कोई आवाज है प्यार भरी न उम्मीद कहीं
न जाने किस मोड़ पर जिंदगी मेरी जा रही
करवटों का आलम न पूछिये टूटे हुए दिल से
लगता है बुझ रहा हो कोई दीपक यहीं कहीं
अजीब शै है या है मौत की खामोशी दूर तक
पतझड़ है तो शोर सूखे पत्तों का क्यों नहीं
वो देखो दूर लौ जल रही है जगमगाती हुई
शायद अभी मैं ज़िंदा हूँ बता रही शमा यही
करके गया था वादा कभी लौटने का जन्नत में
आयेगा अभी फिर से वो सुनहरा दौर भी यहीं
उजालों की कहानी है या ख्वाबों का दौर है
जीने की सजा मिली या मौत का खौफ कहीं
लो तुम्हें कर देते हैं रिहा उजड़ी मोहब्बत से
फिर जन्म लेकर आयेंगे मिलने यहीं कहीं
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़