प्रत्यक्ष वा अनुमान से जो नहीं जाना जाता वह वेदों से अवश्य जाना जाता है, यही वेदों का वेदत्व है: आचार्य सायण
ओ३म्
विश्व प्रसिद्ध विद्वान आचार्य शंकराचार्य जी ने ‘परा–पूजा’ नाम से एक लघु पुस्तक लिखी है जिसमें कुल 9 श्लोक हैं। इसका सातवां श्लोक है ‘प्रदक्षिणा ह्यनन्तस्य ह्यद्वयस्य कुतो नतिः। वेदवाक्यैरवेद्यस्य कुतः स्तोत्रं विधीयते।।’ इसका अर्थ है कि अनन्त की प्रदक्षिणा सम्भव नही, द्वितीय के बिना नमन सम्भव नहीं, वेदवाक्यों से अज्ञेय की स्तुति का विधान कैसे हो सकता है? आर्यजगत के उच्च कोटि के विद्वान व मनीषी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने शंकराचार्य जी की पुस्तक ‘परा–पूजा’ पर व्याख्यान व टीका लिखी है जिसका प्रकाशन आर्यजगत के लब्ध प्रतिष्ठित प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने अपने प्रकाशन संस्थान ‘श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी’ से किया है। उद्धृत श्लोक में ‘वेदवाक्यैरवेद्यस्य’ पद आये हैं जिसका तात्पर्य यह है कि वेदवावक्यों से अज्ञेय ईश्वर की स्तुति का विधान कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। ‘वेदवाक्यैरवेद्यस्य’ पद पर टीका करते हुए स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं और इसका सप्रमाण खण्डन किया है। पाठकों के लिए हम इसे उद्धृत कर रहे हैं।
स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी लिखते हैं कि जिसे वेदवाक्यों से नहीं जाना जा सकता, उसकी स्तुति (स्तोत्र) का विधान कैसे हो सकता है अथवा वह स्तुति का विषय कैसे हो सकता है? परन्तु गीता (15.15) में स्पष्ट कहा है–‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’ अर्थात् सब वेदों से वह (ईश्वर) ही जाना जाता है। राधाकृष्णन जी ने इसका अर्थ किया है–‘He who is to be known by all the Vedas.’ कठोपनिषद् (2.15) में लिखा है–‘सर्वे वेदा यत्पदमामन्ति’ अर्थात् जिस पद (ओम्) का वेद बार-बार वर्णन करते हैं–”The word which the Vedas rehearse’ (Radha-Krishnan). आगे गीता में कहा है–‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति’ (8.11) अर्थात् जिसे वेद के जाननेवाले अविनाशी कहते हैं। स्वयं वेद कहता है–‘यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति’ (ऋग्वेद 1.164.39) अर्थात् जो उसे (परमात्मा को) नहीं जानता वह वेद से क्या लेगा, अर्थात् उसका वेद का पढ़ना व्यर्थ है। इसका तात्पर्य है कि समस्त वेद का प्रतिपाद्य विषय परमात्मा है। इसलिए (स्वामी शंकराचार्य जी का) यह कहना कि ‘परमात्मा को वेदों से नहीं जाना जा सकता’ सत्य का अपलाप करना है। वस्तुतस्तु–
भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति’। –मनु. 12.97
सायणाचार्य ने अपने तैत्तिरीयसंहिता भाष्य के उपोद्धात में लिखा है–
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एतं विदन्ति वेदेन तस्मात् वेदस्य वेदता।।
प्रत्यक्ष से वा अनुमान से जो अर्थ नहीं जाना जाता वह वेदों से अवश्य जाना जाता है। यही वेदों का वेदत्व है।
परमेश्वर की स्तुति का विधान कैसे हो सकता है या वह स्तुति का विषय कैसे हो सकता है, यह कथन भी उपलब्ध प्रमाणों के विपरीत है। ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में कितना स्पष्ट कहा है–‘अग्निमीळे पुरोहितम्’ मैं सबसे पूर्व विद्यमान अग्निस्वरूप परमेश्वर की स्तुति करता हूं। यास्क ब्रह्म को वेद का मुख्य प्रतिपाद्य मानते हुए निरुक्त (7.4.8) में कहते हैं–‘महाभाग्याद्देवताया एक आत्मा बहुधा स्तूयते’ अर्थात् देवता (परमेश्वर) के अत्यन्त ऐश्वर्यशाली होने से एक ही देवता की अनेक प्रकार से स्तुति की जाती है। वेद का आदेश है–
‘तमुष्टुहि यो अन्तः सिन्धौ सूनुः सत्यस्य’। –अथर्व. 6.1.2
अर्थात् हे उपासक ! तू उसी की स्तुति किया कर जो तेरे हृदयसागर के भीतर विद्यमान है, जो सत्य का प्रेरक है और सशक्त है। ‘मा चिदन्यद् विशंसत’ (अथर्व. 20.85.1) किसी अन्य की विविध स्तुतियां मत किया करो। सामवेद को तो मुख्यतः स्तुति या उपासना का वेद कहा गया है–
‘सामभिः स्तुवन्ति’। -काठक ब्राह्मण।
स्वामी विद्यानन्द जी का उपर्युक्त व्याख्यान पढ़ने के बाद हमें शंका होती है कि क्या मान्य शंकाराचार्य जी ने वेदों के यथार्थ स्रूवचरूप को स्वामी दयानन्द जी व उनके पूववर्तियों की तरह सम्पूर्णता में समझा व जाना था? एक अन्य महत्वपूर्ण बात जो हमारे इस लेख का कारण बनी है वह आचार्य सायण की यह मान्यता कि जो बात व ज्ञान प्रत्यक्ष व अनुमान से भी नहीं जाना जा सकता उसका ज्ञान वेदों से अवश्य होता है। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि यही वेद का वेदत्व है। इन वाक्यों और ऋषि दयानन्द की मान्यताओं में यहां पूर्णतः समानता व एकता है। हमने जो अध्ययन किया उससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि वेदों का ज्ञान न होता तो संसार में मनुष्यों को परा व अपरा विद्याओं का सत्य ज्ञान न हो पाता। परा व अपरा विद्याओं का आधार व मूल कारण ईश्वर व उनका वेद ज्ञान ही है। आचार्य सायण के विचार व मान्यता से यह भी ज्ञात वा सिद्ध होता है कि हमारे वैज्ञानिक जिस सत्य को नहीं देख पायें है व देख पायेंगे उन ईश्वर, जीवात्मा एवं कारण प्रकृति को भी वेदों द्वारा ही जाना जा सकता है। इन विषयों में वेद ही एकमात्र प्रमाण है।
आज के लेख में हमने स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी को उद्धृत किया है। हम उनके आभारी हैं। स्वामी जी जब जीवित थे तो हम उनके ग्रन्थों को पढ़ते थे। उनको पत्र लिखते थे व वह हमें उनका उत्तर देते थे। आज भी उनके कुछ पत्र सुरक्षित हैं। दूरभाष पर भी उनसे बातें हुई थीं। सन् 1997 में स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी का उदयपुर के सत्यार्थ प्रकाश न्यास की ओर से सम्मान वा अभिनन्दन किया गया था। उन्हें इस अवसर पर 31 लाख रूपये की धनराशि भेंट की गई थी जो स्वामी जी ने न्यास को उनकी योजनाओं को पूरा करने के लिए लौटा दी थी। हम इस अभिनन्दन समारोह में उपस्थित थे। यशस्वी आर्यनेता व विद्वान तथा ऋषिभक्त आचार्य भद्रसेन जी के सुपुत्र कैप्टेन देवरत्न आर्य जी इस अभिनन्दन समारोह के मुख्य प्रेरणास्रोत थे। अधिकांश धनराशि भी उन्होंने ही संग्रहित की थी, ऐसा हमारा विश्वास व अनुमान है। कैप्टेन साहब से हमारे प्रेम, स्नेह व श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध थे। उनका हमारे साथ हुए पत्र व्यवहार का संग्रह हमारे पास है। उन्होंने हमें स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी का अभिनन्दन पत्र तैयार करने का दायित्व, हमारी असमर्थता व्यक्त करने पर भी, सौंपा था। हमने सामवेद भाष्यकार एवं अनेक वैदिक ग्रन्थों के प्रणेता ऋषिभक्त श्रद्धेय डा. रामनाथ वेदालंकार जी को यह बात बताई तो उन्होंने हमें अभिनन्दन पत्र का प्रारूप तैयार करने को कहा। हमने वह बनाया और उन्हें दिया, उन्होंने उसमें आमूलचूल परिवर्तन कर नया अभिनन्दन पत्र बनाया था। जब फरवरी, 1997 में अभिनन्दन के समय इसका वाचन किया गया तो तालियों की गड़गड़ाहट से यह पता चल रहा था कि लोग उसके एक एक शब्द को कितना पसन्द कर रहे हैं।
हम यहां इतना और कहना चाहेंगे कि स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी आर्यजगत के उच्च कोटि के विद्वान व ऋषि भक्त थे। उन्होंने ऋषि के समर्थन में जो साहित्य लिखा है वह बहुत उच्च कोटि का साहित्य है। उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं तत्वमसि, अनादि तत्व दर्शन, अध्यात्म मीमांसा, सृष्टि विज्ञान और विकासवाद, मैं ब्रह्म हूं, सत्यार्थ भास्कर (दो वृहद खण्ड), भूमिका भास्कर (दो वृहद खण्ड), संस्कार भास्कर, आर्ष दृष्टि, दीप्तिः, रामायण (भ्रान्तियां और समाधान), द्रौपदी का चीरहरण और श्रीकृष्ण, आर्यो का आदि देश और उनकी सभ्यता, खट्टी मीठी यादें (आत्म-कथा) आदि। संस्कार भास्कर की प्रेरणा हमने स्वामी जी को रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़-सोनीपत के एक उत्सव में दी थी। तब उन्होंने हमे कहा था उनकी सस्कारों में गति नहीं है। हमने उन्हें डा. रामनाथ वेदालंकार जी का इस विषय का सन्देश भी दिया था। कुछ समय बाद हमने देखा कि यह ग्रन्थ प्रकाशित हो गया। इसे ले जाकर हमने डा. रामनाथ वेदालंकार जी को दिखाया था। कई दिनों तक उन्होंने इसे अपने पास रखा और बाद में लौटा दिया था। आचार्य रामनाथ जी को भी यह ग्रन्थ अच्छा लगा था। स्वामी विद्यानन्द जी के के समस्त साहित्य के प्रकाशन एव प्रचार की व्यवस्था की जानी चाहिये। इस दृष्टि से आर्यसमाज हमें उदासीन दिखाई देता है। आर्यसमाज को एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो इस विषय को भी अपने एजेण्डा में सम्मिलित करे। आचार्य सायण के उन वचनों को पढ़कर हमें प्रसन्नता हुई जिनका हमने लेख में उल्लेख किया है। यही इन पंक्तियों के लेखन का कारण बना है। पाठक लेख को पसन्द करेंगे यह आशा है। इसी के साथ हम लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य