कविता: बदलते रंग
आज कुछ प्रज्ज्वाल लपटें उठ रही हैं मन के अंदर
आज कुछ कंपित हुआ है जैसे भीतर का समंदर
टूटते हुए तिलिस्मों का बयान लिख रहा हूँ
मैं बदलते रंग धरती आसमान लिख रहा हूँ।।
शब्द जैसे ढाल बनकर भाव जैसे काल बनकर
हो रहा है समर इनमें धार का औजार बनकर
वज्रघातों से है छलनी रोज छाती हो रही जो
वेदना के निकट बैठी आत्मा भी रो रही जो
क्षीण कर दूँ विदीर्ण कर दूँ या लगा दूँ आग ही मैं,
शमशीरों के बीच बैठा मैं मयान लिख रहा हूँ
मैं बदलते रंग धरती आसमान लिख रहा हूँ।।
___सौरभ कुमार