“दिल तो है मतवाला गिरगिट”
मोम कभी हो जाता है, तो पत्थर भी बन जाता है।
दिल तो है मतवाला गिरगिट, “रूप” बदलता जाता है।।
कभी किसी की नहीं मानता,
प्रतिबन्धों को नहीं जानता।
भरता है बिन पंख उड़ानें,
जगह-जगह की ख़ाक छानता।
वही काम करता है यह, जो इसके मन को भाता है।
दिल तो है मतवाला गिरगिट, “रूप” बदलता जाता है।।
अच्छे लगते अभिनव नाते,
करता प्रेम-प्रीत की बातें।
झोली होती कभी न खाली
सबके लिए भरी सौगातें।
तन को रखता सदा सुवासित, चंचल सुमन कहाता है।
दिल तो है मतवाला गिरगिट, “रूप” बदलता जाता है।।
पौध सींचता सम्बन्धों की,
रीत निभाता अनुबन्धों की।
मीठे पानी के सागर को,
नहीं जरूरत तटबन्धों की।
बाँध तोड़ देता है सारे, जब रसधार बहाता है।
दिल तो है मतवाला गिरगिट, “रूप” बदलता जाता है।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)