पेड़ !
पेड़ !
देखे मानव ग्रीष्म में तलाशते हम पेड़ों को
बचते भटकते देने मात लू के थपेड़ों को
पर मानव तुम भूल बैठे क्यों
एक नासमझ सा बालक ज्यों
सोच को यूं सीमित रख कर
इमारतो से वसुंधरा को ढक कर
प्रकृति भी असमंजस में है अब
कुछ भी नहीं होता समय पर अब
ॠतुएं भी कुछ रूठ गई हैं
समय को जैसे भूल गई हैं
तापमान बड़ता ही जाए
धरा भी देखो डगमगाए
जागो मानव और सबको जगाओ
हरियाली को अब कुछ तो बड़ाओ
प्रकृति से छेड़छाड़ न ऐसे करो तुम
कुछ तो इसके कहर से डरो तुम
वरना विनाश दूर नहीं है
क्योंकि आपदाएं तो मजबूर नहीं हैं
संतुलन को बना रहने दो
सूरज को न आग उगलने दो
स्वार्थ की तंन्द्रा को तोड़ो तुम
खुद को प्रकृति से जोड़ो तुम
प्रण कर लो अब यह तुम
पेड़ों का संरक्षण करोगे तुम
समय पर ॠतुएं आएंगी
तापमान को न इतना बड़ाएंगी
हरे भरे पेड़ लहलहाएंगे
तो वो तुम्हारे ही काम आएंगे !
कामनी गुप्ता ***
जम्मू !