लेख

अत्याचारों के घेरे में नारी

नारी शब्द, माँ से शुरू हो कर बेटी, बहन, पत्नी, बहू, भाभी, चाची, ताई, मामी और कुछ अन्य रिश्तों तक जाता है। भारतीय संस्कृति में नारी को बहुत सम्मान मिला है। देवी,लक्ष्मी, सरस्वती जैसे शब्दों से सम्मानित किया गया है। मंदिरों में पूजा की जाती है और श्रद्धा से सर झुकाया जाता है। वास्तव में इस श्रद्धा में देवी माँ से कुछ न कुछ मांगने की कामनाएं ही होती हैं । ” देवी माँ के आशीर्वाद से मेरा वर्षों पुराना रोग ठीक हो गया, मुझे पोत्रे का मुंह देखने को मिला, मेरे बिज़नैस को चार चाँद लग गये इत्यादि ” लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि हज़ारों सालों से भारतीय नारी पर कितने ज़ुल्म हुए हैं ? अगर ज़्यादा लोग इस पर गौर करते, तो नारी को इतने ज़ुल्म सहने नहीं पड़ते। नारी पर हुए ज़ुल्मों की दास्ताँ कहाँ से शुरू करूँ, यह सोचना ही मुश्किल है। जब से भारत पर मुगलों के हमले शुरू हुए, भारतीय नारी पर ज़ुल्म की शुरुआत की इंतहा ही कही जा सकती है। सिंध के राजा दाहिर पर मुहम्मद बिन कासिम का भारत पर मुगलों का पहला हमला था, जिस से सिंध के हिन्दू राज को ग्रहण लग गया और साथ ही भारत की हिन्दू नारी पर ज़ुल्मों की बारिश ही शुरू हो गई। बहुत औरतों ने जौहर की रसम को गले लगाना ही बेहतर समझा और अपने आप को अग्नि की भेंट चढ़ा दिया। अरब मुसलमानों ने तलवार के जोर से लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बना दिया। लाखों औरतों को पकड़ कर अरबों में बेचा गया। जैसे पशुओं की मंडी लगती है, इसी तरह औरतों की बोली होती थी और एक वक्त ऐसा भी आ गया जब खरीदार भी कतराने लगे थे और यह बोली भी चंद सिक्कों पर आ गई थी जिसे टके-टके पर बेचना बोलते हैं। खैर यह तो एक अलग विषय है, क्योंकि विदेशियों से तो ऐसी आशा की ही जा सकती है, लेकिन जो हमारे समाज ने ही नारी पर ज़ुल्म ढाये उनको क्या कहेंगे ?
सब से पहले तो हिन्दू समाज में सती की रसम के रिवाज़ से ही नारी पर घृणित ज़ुल्म हुए, जिस को सोच कर ही रूह कांप उठती है। किसी युवा लड़की को अपने मरे हुए पति के साथ चिता में जलने को मजबूर करना बहुत बड़ा ज़ुल्म था। ऐसी बात नहीं है कि कोई लड़की पति के साथ जलना चाहती थी, उस के लिए जलने के सिवा कोई चारा ही नहीं था, क्योंकि ना जलने की हालत में उसे उम्र भर की ज़िल्लत सहनी पड़ती थी और उस के परिवार वालों पर अनगिनत कठिनाइयां आती थीं। विधवा औरत की शादी करना तो सोचा भी नहीं जा सकता था, फिर सारी उम्र लोगों के ताने और बुरी नज़र से बचना, एक ऐसी बात थी कि लड़की के लिए सती होने के सिवाय और कोई रास्ता ही नहीं रह जाता था। आज से तकरीबन 900 साल पहले इंडिया में मुहम्मद बिन तुगलक का राज्य था और उस के समय में ही मराको का एक यात्री इब्नबतूता भारत में आया था और वह 6 साल दिली में एक काज़ी की हैसियत से भी काम करता रहा था । इब्नबतूता ने अपने जीवन में जितनी यात्रा की, किसी यात्री ने नहीं की और वह भारत में 6 साल रह कर चीन की तरफ चला गया था। इंडिया के बारे में उस ने बहुत कुछ और छोटी-छोटी बातें लिखीं हैं । उस ने सती की रसम के बारे में बहुत ही विस्तार से लिखा है। एक गाँव में वह सती की रसम होती देखने चला गया। उस के साथ और भी लोग थे, जो सभी घोड़ों पर सवार थे। इस गाँव में दो युवा लड़कियों के पति किसी लड़ाई में मारे गए थे। इन दोनों लड़कियों के सभी रिश्तेदार और गाँव के लोग इकट्ठे हो गए थे। दोनों लड़कियों को दुल्हनों की तरह सजा दिया गया था। दो घोड़ियां तैयार थीं, तूतियाँ नगाड़े बज रहे थे। यह रौनक इस तरह थी, जैसे कोई शादी हो रही हो। कुछ देर बाद दोनों लड़कियों को घोड़ियों पर चढ़ाया गया और चलने लगे और इब्नबतूता और उस के साथी भी उन के पीछे पीछे चलने लगे। सभी लोग गा रहे थे और कुछ लोग सती होने जा रही लड़कियों को बोल रहे थे, ” मेरे पिता जी को कह देना, हम यहां बिलकुल ठीक हैं “, कोई कहता मेरे भाई को बोल देना, हमारी फ़िक्र नहीं करना, हम सब मज़े से रह रहे हैं “, यह ऐसे दीख रहा था, जैसे लड़कियां कहीं दूर जा रही हैं और वे उन के रिश्तेदारों को उन का सन्देश दे देंगी। कोई एक मील चल कर सभी एक मंदिर के पास आ गए, यहां पहले ही एक गड्ढे में बहुत सी लकड़ियां डाली गई थी। इब्नबतूता लिखते हैं ” मैं हैरानी से सब देख रहा था। कुछ देर मंदिर के पुजारी कुछ पढ़ते रहे और फिर एक ने लकड़ियों को आग लगा दी। जल्दी ही आग के शोले उठने लगे। कुछ आदमी इन शोलों के इर्द-गिर्द कपड़ा तानने लगे। एक लड़की ने उन से कपड़ा छीन के आग में फेंक दिया और बोली, ” तुम हमें आग से डराते हो, हम नहीं डरतीं, और दोनों ने आग में छलांगें लगा दी। जोर-जोर से चीखें निकलीं और यह देख कर मैं घोड़े पर ही बेहोश हो गया। जब मुझे होश आया तो सभी जा चुके थे। इस के बाद कई रातें मुझे नींद नहीं आई ”
इस घृणित प्रथा को ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिंक ने बंगाल में 1829 में एक ऐक्ट के अधीन बंद किया था। इस ऐक्ट के अधीन जो भी लड़की को सती होने के लिए मज़बूर करते थे, उन को सज़ाएँ मिलती थीं। यह ऐक्ट इंटरनेट पे पढ़ा जा सकता है। लड़कियों की शादी तो छोटी उम्र में ही हो जाती थी और अगर उस का पति इस दुनिया से रुखसत हो गया, तो विचारी छोटी-सी कन्या को सारी उमर बाल विधवा रहना पड़ता था और फिर वह न तो अच्छे कपड़े पहन सकती थी और न ही खुश रह सकती थी। मुख़्तसर लिखूं, तो इस बाल विधवा लड़की को सारी उम्र दुखों का सामना करना पड़ता था। पुरुष बेशक जो मर्ज़ी करे, लेकिन औरतों के लिए अग्नि परीक्षा होती थी और यह तो सीता जी को भी देनी पडी थी। बहुत बातें ऐसी हैं कि कम पढ़े-लिखे लोग तो मानेंगे ही, लेकिन पढ़े-लिखे लोग भी रूढ़िवादी सोच को पकड़े हुए हैं। मरने के बाद बेटा ही मुखाग्नि देगा, बेटी नहीं क्योंकि नरक में जाना पड़ेगा, स्वर्ग में जाना है तो बेटे को ही स्वर्ग का दरवाज़ा खोलना होगा, नारी के लिए मैं यह अपमानित बात ही कहूंगा। सब से बुरी बात है, कन्या भ्रूण हत्या। इस सोच का कारण यह ही है कि बेटे के नाम से ही वंश आगे बढ़ेगा। बेटी बोझ है, पढ़ाओ लिखाओ, शादी पर ढेर सा दाज दो और सारी उम्र के लिए समधियों के गुलाम बन जाओ। जब यह सब समाज में हो रहा है तो भ्रूण हत्याएँ तो होंगी ही। बहुत लोग बेटी के सुसराल वालों को खुश रखने के लिए अपने मकान तक गिरवी रख देते हैं और पैसे वापिस न करने के कारण सर से छत भी गँवा बैठते हैं। दहेज के लालची लोग लड़की को तंग करते हैं और उसे मार भी देते हैं। ऐसी कहानियां हम आम ही हर रोज़ अखबारों में पढ़ते हैं।
एक बात और है, यह सोच कि बेटा तो शादी में कुछ लाएगा ही, बेटी हो तो सारी उम्र देते रहो, दिल पर पत्थर रख कर कन्या की बलि दे दी जाती है। समय-समय पर महात्माओं ने इस पर आवाज़ उठाई है. गुरु नानक देव जी ने तो यहां तक कहा कि, ” सो क्यों मंदा आखीऐ, जित जमे राजान ” लेकिन समाज वहीँ एक चट्टान की तरह खड़ा है। अंग्रेजों के ज़माने में 1901 में हुई जनगणना में 1000 बेटों के मुकाबले 972 बेटियां होती थीं लेकिन 2001 में यह आंकड़ा पंजाब में हर 1000 बेटे के मुकाबले 798 बेटियां , हरियाणा में 1000 बेटों के पीछे 819 बेटियां और गुजरात में 1000 बेटों के पीछे 833 बेटियां। एक सौ साल में इतना अंतर कैसे आ गया ?
1960 तक फिर भी इतना बुरा नहीं था। तब बेटी के जन्म लेने के बाद ही उसे मारते थे और जीते जी बेटी को मारने का हौसला हर किसी में नहीं था, लेकिन 1980 के करीब अल्ट्रा साउंड मशीने आ जाने से बेटी को कोख में मारना प्लेग फैलने की तरह हो गया। बहुत-से क्लिनिक खुल गए और कुछ डाक्टरों ने यह धंधा ही बना लिया। बेटी की शादी होने के बाद पहला बच्चा, बेटा हो जाए, तो बेटी को घर में महफूज़ हो जाने का अहसास हो जाता है, लेकिन बेटी हो जाने पर सब चुप हो जाते हैं। दुसरी बेटी हो गई तो मुसीबतों का दौर शुरू हो जाता है। बहुत लोग तो पहले गर्भ के दौरान ही अल्ट्रा साउंड करवाने चले जाते हैं और बेटी होने का पता लगने से लड़की पर अबॉर्शन कराने का दवाब डालते हैं। ऐसा भी सुना गया है कि कई लड़कियां अल्ट्रा साउंड खुद कराने चली जाती हैं और बेटी का पता लगने से अबोर्शन करवा आती हैं। कोई भी लड़की ख़ुशी से अबॉर्शन नहीं करवाती, उस के दिमाग में सामाजिक मुसीबतों का अहसास होता है। अबॉर्शन में बहू के पीछे सास का बहुत दबाव होता है। यह भी सच दिखाई देने लगता है कि औरत-ही-औरत की दुश्मन है। सास भी क्या करे, उस को आर्थिक परेशानियां नज़र आने लगतीं हैं। आर्थिक परेशानियां तो बहुत लोगों को झेलनी पढ़ती हैं, लेकिन यह अबॉर्शन का चलन तो अमीरों में भी है। मैं कुछ अरसा पहले आमिर खान का सत्यमेवजयते शो देख रहा था। उस शो को देख कर मेरी आँखों में आंसूं आ गये, इस में कुछ महिलाएं बेटी पैदा होने पर अपने पर हुए ज़ुल्मों की दास्ताँ बता रही थीं। एक का ससुर तो खुद डॉक्टर था।
इस कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिये कुछ संस्थाएं जागरुकता के लिए अभियान भी चला रही हैं। गुजरात में डीकरी बचाओ और पंजाब में नन्नी छाँव जैसी लहरें चली हैं। प्रतिभा पाटिल ने भी बेटी बचाओ आवाज़ उठाई थी। बहुत कुछ हो रहा है लेकिन क्या यह बंद हो गया? नहीं, इस को बंद करने के लिए पहले अल्ट्रा साउंड, सिर्फ हस्पताल में ही होने चाहियें, यहां अल्ट्रा साउंड करवाने वालों का बाकायदा रिकॉर्ड रखा जाए। दूसरे, दान-दहेज़ प्रथा को सख्ती से बंद किया जाए। सिर्फ गुरद्वारे-मंदिर में शादी हो कर पार्टी पर मेहमानों की संख्या कम-से-कम तय हो। बेटी को तंग करने वालों पर सख्त कानून बना कर उन को सजा दी जाए। कानून तो सरकारों ने पहले भी बनाये हुए हैं लेकिन जो घूस की आदत है, वह क़ानून को लागू नहीं होने देती। अगर कोई पकड़ा गया, तो कुछ पैसे दे कर वोह क़ानून की धज्जियां उड़ा देता है। इस की जांच इन्वैस्टीगेशन ब्यूरो की देख रेख में हो और सिटिंग ऑपरेशन ज़्यादा-से-ज़्यादा किये जाएँ।
आखिर में मैं एक ऐसी बात लिखना चाहता हूँ जिस में नारी की आद काल से बेपत्ति होती आई है और यह है, राजे महाराजों के हरम। कई कई सौ रानियां महाराजों के हरम में होती थीं, उन की ज़िन्दगी के बारे में शायद ही किसी ने लिखा हो, लेकिन मैंने एक किताब पढ़ी थी जिस का नाम था” महाराजा ” जिस का लेखक था जर्मनी दास। उस ने पंजाब के एक महाराजा का बड़े विस्तार से लिखा है, जिस में उस ने उस की अय्याशी के बारे में बहुत कुछ लिखा है और ऐसे ही देश के अन्य राजे थे। औरत को सिर्फ एक अय्याशी का साधन ही समझा जाता था। यहां तक कि किसी को गाली भी देनी हो तो माँ-बहन के नाम से दी जाती है। ऐसे समाज में रहते हुए भी नारी ने इतनी उन्नति की है, कि मैं इस नारी को सैल्यूट करता हूँ। झांसी की रानी जैसी औरतों ने भारत का नाम रोशन किया और आज की औरत बहुत आगे बढ़ रही है, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं, मर्द के नाम पर कलंक हैं। काश! नारी पर होते सभी ज़ुल्म ख़त्म हो जाएँ, तो नारी को भी बराबरी का कुछ अहसास होने लगे। इस नारी में मेरी माँ, बहन, बेटी, बहू सभी आते हैं।