“फूल बनकर सदा खिलखिलाते रहे”
दर्द की छाँव में मुस्कराते रहे
फूल बनकर सदा खिलखिलाते रहे
हमको राहे-वफा में ज़फाएँ मिली
ज़िन्दग़ी भर उन्हें आज़माते रहे
दिल्लगी थी हक़ीक़त में दिल की लगी
बर्क़ पर नाम उनका सजाते रहे
जब भी बोझिल हुई चश्म थी नींद से
ख़्वाब में वो सदा याद आते रहे
पास आते नहीं, दूर जाते नहीं
अपनी औकात हमको बताते रहे
हम तो ज़ालिम मुहब्बत के दस्तूर को
नेक-नीयत से पल-पल निभाते रहे
जब भी देखा सितारों को आकाश में
वो हसीं “रूप” अपना दिखाते रहे
—
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)