बॉलीवुड : एक अभिशाप
बॉलीवुड : एक अभिशाप
फ़िल्में मेरी पहली पसंद हुआ करती थी. यक़ीनन आपकी भी रही होंगी. एक समय था जब मैं भी शौकिया फिल्मिया हुआ करता था. शाहरुख़ की तरह स्वेटर कांधे पर रखना, सनी की तरह हैंडपंप उखाड़ने की कोशिश करना, अकेले कमरे में तकिये को दुश्मन समझकर उसे खूब कूटना बहुत भाता था. पर जैसे – जैसे फ़िल्मी जीवन रूपी जीवन से यथार्थवादी जीवन संभाला, उस दिन से समझ आया कि फ़िल्में कहानी तक भाती हैं. उनका सचमुच वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता है.
एक समय था जब फिल्में देखना मनोरंजन का साधन हुआ करता थी. एक समय था जब नाटक देखना –नाटक(रंगमंच) करना संस्कार हुआ करता था. परंतु रंगमंच को फूहड़ता, नग्नता और विलासिता का जामा पहनाकर व्यावसायीकरण के रूप में परोसने की प्रक्रिया जैसे-जैसे बलवती होती गई वही आगे चलकर बॉलीवुड कहलाती है. बॉलीवुड ने जो परोसा उस आधार पर समाज की जो हानि हुई, उसकी भरपाई करना असंभव है. हमारे मूल्यों को निम्न से निम्नतर बनाने में सबसे बड़ी भूमिका इसी मंथरा रूपी बॉलीवुड की रही है. आज 21वीं सदी में जब हम और आप हिंदुस्तान को, हिंदुस्तानी समाज को देखते हैं तो ‘बॉलीवुड’ किसी भी प्रकार से हमें वरदान दिखाई नहीं देता. इसके जितने पक्षों को, इसके जितने पहलुओं को जाँचा जाए तो केवल अभिशाप ही अभिशाप दिखाई देता है. आगे जिसे प्रमाण के साथ मैं प्रस्तुत करने जा रहा हूं. हो सकता है यह एकीकरण का पक्ष हो. हो सकता है यह कुछ लोगों को अपचनीय हो. पर यकीन मानिए यदि इसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो इसके दूरगामी परिणाम देखे जा सकते हैं. हम मनोरंजन के साथ न जाने क्या – क्या ग्रहण करते जा रहे हैं.
मान्यवर, क्या कभी आपने और हमने इस विषय पर विचार किया है कि बॉलीवुड ने इस समाज को आखिर क्या – क्या चीजें दी है…? विगत कुछ दिनों के आकलन में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि चोरी और डकैती करने के जितने तरीके बॉलीवुड ने इस समाज को सिखाए हैं, उनके दिमाग पर प्रहार किया है और बॉलीवुडरूपी चोरी करने पर उतारू किया है यह यकीनन सोच का विषय है. भारतीय महिलाओं को कपड़ों के प्रति जागरूक करने में और जागरूक कर कपड़ों की सिकुड़न में सबसे अधिक भूमिका मेरी अल्प बुद्धि की सोच से मात्र बॉलीवुड ने दिया है. लड़कियों को – महिलाओं को छोटे अधनंगे कपड़े पहनने की सीख इस बॉलीवुड में न केवल दिया बल्कि नारी को भोग की वस्तु के रूप में परोसने का कार्य भी इसी बॉलीवुड ने किया है. महिलाओं की विचारणीय स्थिति के लिए केवल और केवल बॉलीवुड जिम्मेदार है. कभी भी इस बॉलीवुड ने महिलाओं को सशक्त करने की भूमिका नहीं निभाई.
हो सकता है कुछ लोगों के दिमाग पर यह बात घर कर रही होंगी. मान्यवर, बॉलीवुड मनोरंजन का, समय गुजारने का, जीवन को रोमांचित करने का एक सशक्त साधन है परंतु किसी भी विषय का, किसी भी वस्तु का, किसी भी आदत का अतिरेक जीवन को जहरीला बना देता है. असहनीय बना देता है. जिससे जीवन की पराकाष्ठा को पाना नामुमकिन हो जाता है. भारतीय युवाओं को साइकिल की चैन तोड़कर हाथों में लपेटकर सामने वाले पर प्रहार करने का, हाथों में फाइटर पहन कर पर दादागिरी करने का और गले में रुमाल डालकर टपोरीगिरी करने का मूल मंत्र यकीनन मात्र बॉलीवुड ने ही दिया है. मुझे नहीं लगता कि बॉलीवुड से पहले कभी इस मुल्क के – इस समाज के युवाओं को यह सारी चीजें आती होगी. थोड़ा और आगे बढ़ें तो इसी दादागिरी – टपोरीगिरी के बल पर गुंडागर्दी करके हफ्ता वसूली करना, हफ्ता वसूली में कमजोर को – असहाय को किसी शस्त्र की नोक पर प्रताड़ित करके, डरा – धमकाकर जबरन पैसे वसूलना, यह केवल बॉलीवुड ने ही सिखाया है. हमने कभी यह गौर नहीं किया कि भारतीय फिल्मों में बॉलीवुड में काम करने वालों वाले अभिनेता – अभिनेत्रियों का अपना व्यक्तिगत जीवन कैसा है. जिसे आज का युवा प्रेरणा का स्त्रोत मानता है. वह स्वयं कुसंस्कारों – कुकर्मों के गड्ढे में गड़े पड़े हैं. यह वे लोग हैं जिन्हें‘नाचैना’ की संज्ञा दी जाती रही है. अतीत में जो केवल राजा – महाराजाओं के शौक व मूड को अच्छा करने के लिए अभिनय या नृत्य करते थे. आज वे इस समाज की विकलांग मानसिकता के कारण राजा बन बैठे हैं और आम आवाम को मूर्ख बनाकर ऐशो आराम की जिंदगी का निर्वहन कर रहे हैं. जिनके कुत्ते भी लाखों की जिंदगी जी रहे हैं. क्या आपने और हमने कभी सोचा है कि बॉलीवुड में जो डायलॉग बोले जाते हैं, जिन संवादों का प्रयोग होता है, क्या इस समाज पर कभी उसका असर देखने मिला है…? क्या खुद अभिनेता कभी अपने जीवन में उन संवादों की गहराई को उतारते हुए दिखाई देता है…? अपनाते हुए दिखाई देता है…? जीते हुए दिखाई देता है…? यकीनन नहीं. यदि इसका उत्तर नहीं है तो महाशय, हमारा और आपका जेब खाली करके, हमारे और आपके मूड का फायदा उठाकर यह लोग मात्र अपना घर भरते चले जा रहे हैं. बॉलीवुड ने पिछले 30 वर्षों में भारतीय संस्कृति के साथ न केवल उसे मूर्ख बनाया है बल्कि पाश्चात्य सभ्यता को – पाश्चात्य संस्कृति को प्रचारित – प्रसारित करने का पूर्णरूपेण कार्य भी किया है. बलात्कार के नए तरीके अपनाने का और विवाह हो रही लड़की को मंडप से भगाने का यदि किसी ने तरीका बताया है तो वह मात्र बॉलीवुड है. यह सब कुछ हमें दिखाई देता है परंतु दुर्भाग्य है कि इन सभी चीजों को देखने के बाद भी,कुछ पल सोचने के बाद भी हम और आप कभी इससे बाहर आने की कोशिश नहीं करते. इस समाज में कुत्तों को स्थापित करने में और कुत्तों को गाय और भैंसों से श्रेष्ट बताने में, श्रेष्ट बताकर उनका पालन पोषण करवाने में,कुत्तों पर मासिक हजारों रुपए खर्च करवाने की प्रवृत्ति मात्र बॉलीवुड ने प्रदान की है. गायों को दर-दर भटकाने का सलीका हमें मात्र बॉलीवुड ने दिया है.
भारतीय सभ्यता – संस्कृति के अनुसार पुरुष वर्ग को सिर पर एक चुटिया रखना होता था. जो संतों और ऋषियों की परंपरा से चला आ रही थी. परंतु एक पतली चोटी रखने को मुर्खता बताकर बालों को जानवरों की भांति अजीबोगरीब स्टाइल में रखने की प्रधानता केवल और केवल बॉलीवुड ने दिया है. मुर्खतारुपी सभ्यता के नए प्रतिमान गढ़ने का कार्य केवल और केवल बॉलीवुड दे रहा है.
हिंदी बोलने पर शर्मिंदगी महसूस करना, संस्कृत से परहेज करना और फर्राटेदार सीमित अंग्रेजी बोलकर श्रेष्ठता व चरित्र का प्रमाण साबित करने वाला यह बॉलीवुड हमें सबसे बड़ा मूर्ख बना रहा है. हम और आप इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं कि हिंदी का प्रयोग करके अरबों रुपए कमाने वाला यह बॉलीवुड जब सार्वजनिक अंग्रेजी का प्रयोग करने लगता है, तब इनके ‘बहरूपिए’ बनने का प्रमाण साबित होता है. भारतीय भजनों को, सकारात्मक विचारों को हमारे दिमाग से हटाकर ‘अश्लील गानों’ को परोसने का कार्य इसी बॉलीवुड ने किया है. होंठों की, चुम्बन की,सुहागरातों की महिमामंडन करने सार्वजनिक करने का कार्य केवल बॉलीवुड ने किया है.
मैं रोज सफ़र करते करते हुए बच्चों से जब संवाद करता हूँ तो मुझे इस बात का एहसास होता है कि इसी बॉलीवुड ने बच्चों का बचपन छीन कर उन्हें जल्द ही ‘जवान’ कर दिया है. यहां कोई भी ऐसा बुद्धिजीवी इसे नकार नहीं सकता कि आज की युवा पीढ़ी पूरा राष्ट्रगान -राष्ट्रगीत भले ही ना याद रख पाती हो लेकिन उसकी जुबान पर बॉलीवुड के फूहड़ता प्रदान करने वाले गीत जरूर रचे – बसे होते हैं. यह न केवल हमारी निम्न सोच का प्रमाण है बल्कि हम मूर्ख हैं यह साबित करने के लिए काफी है.
पिछले 30 वर्षों में हमें बॉलीवुड ने ऐसी ही ना जाने कितनी कुरीतियों के बीच लाकर खड़ा कर दिया है. रोज हम पर गंदगी के कीचड़ को उछाला जाता है. पर फिर भी हम और आप देख कर, सुन कर और समझ कर भेद नहीं कर पाते और बिना सोचे – समझे, बिना सिर पैर की फिल्म पर 500 करोड़ से अधिक दान कर देते हैं. जिस 500 करोड़ का लाभ मात्र दो लोगों को या तीन लोगों को होता है. हमारे घरों से पैसा लेकर 2 घंटे 30 मिनट हमारे सामने अनर्गल बातें रखकर, इस बॉलीवुड ने कुछ घंटों में 500 करोड़ कमाने का जो व्यावसायिक तरीका ढूंढा है,वह न केवल साधारण समाज के लिए असहनीय है बल्कि पूर्ण समाज के लिए निंदनीय है.
इस क्षेत्र में एकआध, अल्प मात्रा में कुछ लोग हैं जो सामाजिक चेतना को जागृत करना, देश प्रेम की भावना जगाना अपना उद्देश्य रखते हैं. पर दुर्भाग्य उनके भी कपड़ों को उतारने का पूर्ण प्रयास उनसे ऊपर बैठे हुए लोग कर लेते हैं.
मान्यवर, यह दुर्भाग्य ही है कि बॉलीवुड के अभिनेता, अभिनेत्रियों और क्रिकेट के खिलाड़ियों का जन्मदिन रहने पर देश का प्रसार माध्यम और युवा पीढ़ी उनकी गाड़ी के पीछे पीछे दौड़ती है. उनकी झलक पाने को आतुर रहती है. उनके पैरों की धूल चाटने पर आमादा रहती है. पर नशे की धुन में देश व समाज को ताक पर रखकर चलने वाले इन सभी का इस तरह जन्मदिन मनाना, इन्हें प्रेरणा का स्त्रोत मानना क्या उचित है…? यह यक्ष प्रश्न हम सभी के सम्मुख खड़ा है. हास्याद्पद लगता है ‘जब ऐश्वर्या राय को चांद दिखा या नहीं इस विषय पर इस देश का मीडिया नजर टिकाए रहता है और यवतमाल में किसानों की आत्महत्या पर, मुंबई की सड़कों पर भीख मांगने वाले बच्चों पर कोई भी नजर न बनाकर नजर अंदाज करने लगता है.’ अमिताभ के जन्मदिन पर विशेष कवरेज दिखाकर गरीब – शोषित समाज को नजरअंदाज करने की भूमिका आखिरकार क्या स्थापित करना चाहती है. इनके जन्मदिन को सार्वजनिक करके हम क्या साबित करना चाहते हैं…?इनमें क्या ऐसा है जो कि इन्हें इतना सम्मान मिले..?
देश के शूरवीरों, वीर – वीरांगनाओं, ऋषि – मुनियों, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, महाराणा प्रताप,छत्रपति शिवाजी, झांसी की रानी, पृथ्वीराज चौहान, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह आदि के जीवन को मात्र उपयोग करके पैसा लूटने का यह बॉलीवुड का नया तरीका इस देश के युवाओं को खूब भाता है. इस देश का युवा फिल्म देखकर निकलते समय पॉपकॉर्न की खाली पुड़िया को जिस तरह डस्टबिन में फेंकता है, उसी तरह उस फिल्म से मिली सीख को – विचार को वह वहीँ सिगरेट के धुएं में, पान की पिचकारी में, खर्रे की पिक में और चरस गांजा के नशे में उड़ा देता है. देशभक्ति की फिल्म देखकर ख़त्म होते ही उसकी देशभक्ति भी फिल्म के साथ समाप्त हो जाती है. दुर्भाग्य यह है कि यह समाज ये तय नहीं कर पा रहा है कि फिल्मों को समाजहित के लिए बनाया जाता है या व्यवसाय के लिए. फिल्म को जागरूकता के लिए बनाया जाता है या मौज – मस्ती के लिए.
यहाँ यह कहना कदापि अनुचित नहीं होगा कि भारतीय समाज को दिग्भ्रमित – पथ भ्रमित – दिशाहीन करके सभ्यता और संस्कारों का पतन करने में सबसे बड़ी भूमिका बॉलीवुड की रही है और इस सेवा में वह निरंतर अपना योगदान श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम दे रहा है और उम्मीद है देता रहेगा…!!!
प्रा. रवि शुक्ल ‘प्रहृष्ट’
दिल्ली पब्लिक स्कूल, नासिक
8446036580