गज़ल
थोड़ी चालाकी से थोड़ी सी गद्दारी से,
महल दोस्ती का जला इक चिंगारी से,
दिल टूटा तो इक आह भी नहीं निकली,
रिश्ते हमने निभाए बड़ी खुद्दारी से,
दाखिला ले लिया खुदगर्ज़ी के मकतब में,
दिल फिर से लगाएंगे पर होशियारी से,
पहरा काँटों का है चारों तरफ मुस्तैद बड़ा,
फूल इस बार खिले हैं पूरी तैयारी से,
ये मुहब्बत का मर्ज़ लाइलाज होता है,
कितने बर्बाद हो गए हैं इस बीमारी से,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।