जिंदगी के रंग कई रे
घर परिवार में शादी का माहौल है। सब सजने सवँरने में उत्साह से जुटे हुए है। ममता व्यस्त होने का नाटक करती इधर-उधर में लगी हुई है क्योंकि सजना सँवरना उसकी किस्मत में नहीं, उसकी जिंदगी राम के जाने के बाद बेरंग, बेनूर हो गई।
मेहँदी वाली आई है । सबमें मेहंदी लगवाने की होड़ लगी हुई है।
पूर्वी दौड़ती हुई आई और उससे मेहँदी लगवाने की जिद करने लगी। उसने टालते हुए कहा बाद में लगवाएगी, तो जिद करने लगी “आपने साड़ियाँ भी नहीं निकाली, कौन सी पहनोगी ? अब मेहँदी जल्दी लगवाओ।”
ममता कुछ कहें उससे पहले ही छोटू बोल पड़ा “अरे पूर्वी तुम समझती नहीं हो , ये मेहँदी कैसे लगाएंगी, इनके “सुनो जी” नहीं हैं न !”
पूर्वी बोली “सुनो जी ये क्या हुआ भला?”
छोटू बोला “मेरी माँ, पापा को “सुनो जी” कहती हैं , इनके नहीं हैं न! ये अकेली हैं ”
वह बोली ,”अच्छा ! तो ये विधवा है बालिका वधु की सुगना और आनंदी जैसी, वे भी तो ऐसे ही रहती हैं ”
सुनते ही नश्तर से चुभा ये शब्द ? हँसे कि रोये ?
“ये टीवी सीरियल भी न….. बच्चों को समय से पहले बड़ा कर देते हैं ” बड़बड़ाती हुई बाहर चाय के लिये रसोई में आवाज लगाने लगी।
— गीता पुरोहित