कविता – तस्वीर भगवान की
आँखें बंद थी
ध्यान मग्न था
घर के मंदिर का कोना था,
अचानक बोल उठी
तस्वीर भगवान की
तुम रोज मुझे पोंछते हो
साफ करते हो
तिलक लगा अक्षत चढ़ाते हो
पुष्प चढ़ाते हो
दीप जला भोग लगाते हो,
क्या है तुम्हारे मन में
आखिर तुम चाहते क्या हो ?
बच्चों की खुशहाली
परिवार का सुख
भरपूर धन दौलत
सब कुछ तो दिया है मैंने
पर तुम खुश नहीं हो
अशांत हो भटकते इधर-उधर ,
पत्नी पर चिल्लाते हो
बच्चों पर क्रोध करते हो
नौकरों को तुम
पशु से भी बद्दतर समझते हो
व्यवसाय में लोगों को ठगते हो
तुम्हारा महल सा घर
तुम्हें काटता है,
जंगलों में घूम कर
शांति तलाशते हो
भूख नहीं लगती है
व्यंजन नहीं सुहातेे हैं,
तुम्हारे पास दो गाड़ियां होकर भी-
पड़ोसी की छोटी से गाड़ी
तुम्हें चुभती है ।
सुनो !
ध्यान से सुनो,
सुन रहे हो न !
मत लगाओ मुझे
तिलक, अक्षत, भोग,
तुम पोंछ डालो
अपने मैले मन को
पवित्रता की रोली लगा
ज्ञान के अक्षत डालो ईर्ष्या द्वेष जला दीपक में
बुरे विचारों होकर से दूर
स्वयं फूल समान
हलके हो जाओ ।
पवित्र होते ही आत्मा के
मन शांत हो जायेगा
मत भटको इधर-उधर
मत पोछो मेरी तस्वीर
पोछ डालो अपने
मैले मन को ।
— निशा नंदिनी गुप्ता
तिनसुकिया ,असम