कविता : मानवता
मानवता? ये मानवता क्या होती है
बचपन से लेके आज तक
हर ऋत हर मौसम देखे
ना देखना था वो भी देखा
जो देखना था वो भी देखा
पर इस मानवता से कभी
मुलाक़ात ही नही हुयी
बड़ों का अपमान देखा
गली गली में वृद्धाश्रम देखा
कचरे में पड़ी नन्ही जान देखी
बिलखता हुआ बचपन देखा
कोमल कंधों पर बोझ उठाया
मासूम सा बचपन देखा
पेट के लिए खिड़की में
बैठी जवानी देखी
बोझ बन गयी ऐसी
बुढ़ापे की कहानी देखी
मनचलों की मनमानी देखी
राह चलते लज्जित होती
रोती वो अंजानी देखी
रात के अंधेरों में
अस्मित लुटती नारी देखी
जलती हुयी वो नयी दुल्हन देखी
अनपढ़ों को फँसाती संस्था देखी
भोली जनता को लुटती
नेताओं की जात देखी
वक़्त के हिसाब से बदलने
वाली लुटेरों की बात देखी
यही देखकर बडे हुए
इसे ही हक़ीक़त समझते गए
फिर होती है क्या मानवता
जिसे ये पूछो वो है खिसकता
पता चले तो ज़रा बता देना
एक बार तो मुलाक़ात करा देना
— सुवर्णा परतानी, हैद्राबाद